बाहर आग बरस रही थी.
पिता का अध्ययन-कक्ष भी तप रहा था.
पसीने में डूबे पिता लिखने में मगन थे.
अपने 'एसी'-कक्ष से निकले बेटे को पिता पर दया आई,
वह बोला-''पिताजी, आपके कमरे में भी 'एसी' लगवा देता हूँ. भीषण गर्मी सहते हुए आप कैसे लिख लेते हैं ?''
पिता मुस्करा कर बोले- ''शरीर से बहता पसीना मुझे मनुष्य बनाए रखता है. करोड़ों लोगों की पीड़ा को स्वर दे रहा हूँ, तो उसका सच्चा अहसास भी होना चाहिए. शीतल-कक्ष में गर्मी का अहसास कैसे संभव होगा?''
''बाकी लेखक भी तो....'' बेटा कुछ और बोलना चाहता था, तो पिता ने बात काट दी- ''वे शायद बहुत 'बड़े' लेखक हैं. मैं उनकी तरह बड़ा नहीं होना चाहता.''
पुत्र मौन हो गया.
पिता लिखने में मगन हो गए.