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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जयंती (23 जुलाई) पर विशेष

23 जुलाई 2019

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पत्रकारिता के माथे का वह पवित्र 'तिलक'

गिरीश पंकज



लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को साधारण लोग इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने गणेश उत्सव की शुरुआत की थी । यह उनका छोटा- सा परिचय है। तिलक जी तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की ऐसी अद्भुत कड़ी हैं, जिसके बिना हम उस इतिहास की कल्पना ही नहीं कर सकते। तिलकजी का समूचा व्यक्तित्व धधकती ज्वालामुखी की तरह था। उनका अमर वाक्य 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा", जन-जन का अमर वाक्य बन गया। जिस तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का जयघोष किया और वह पूरे देश का कण्ठहार बन गया, उसी तरह तिलक जी ने स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना कर उसे सब का अधिकार बना दिया। तिलक जी ने जब सन 1881 में विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर 'केसरी' और 'मराठा दर्पण' नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया था। तब केसरी में तिलक ने साफ-साफ लिख दिया था कि "केसरी निर्भयता निष्पक्षता के सभी प्रश्न पर चर्चा करेगा"। उन्होंने यह भी लिखा कि "ब्रिटिश शासन की चापलूसी करने की जो प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं है "। उस समय के जो छोटे-मोटे अखबार निकल रहे थे, उनमें ब्रिटिश सरकार की चाटुकारिता साफ दिखाई देती थी, उसे देखकर तिलक जी व्यथित हुए और यही कारण है कि उन्होंने 'केसरी' और 'मराठा दर्पण' के प्रकाशन का निर्णय किया । केसरी मराठी में निकल रहा था और मराठादर्पण अंग्रेजी का साप्ताहिक था। केसरी के तेवर को समझने के लिए तिलक जी के संपादकीय की यह एक पंक्ति अपने आप में पर्याप्त है, जिसमें वह कहते हैं "केसरी के लेख इस के नाम को सार्थक करेंगे", उनका आशय यही था कि जिस तरह से शेर गरजता है उसी तरह से केसरी की पत्रकारिता भी गरजेगी। और यही हुआ भी। बहुत जल्दी तिलक जी अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन गये। अख़बार के प्रकाशन के बाद से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ समाज में वैचारिक वातावरण भी बनने लगा।


बेबाक निर्भीक लेखन


तिलक जी ने समय-समय पर अंग्रेजी हुकूमत को आईना दिखाने का काम किया । सन 1905 में जब बंगाल के विभाजन की कोशिश की गई, तो तिलक जी ने अपने अखबारों के माध्यम से उसका जमकर विरोध किया। एक बार तो स्वदेशी के मुद्दे पर लंबा लेख लिखते हुए उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य को लताड़ लगाई और दो टूक लिखा था कि "ब्रिटिश सरकार भारत में भयमुक्त है इसलिए उसका दिमाग फिर गया है, और वह जनमत की उपेक्षा करती है ।"

तिलक जी की पत्रकारिता के चार सूत्र थे, जिसका उन्होंने आजीवन पालन किया । ये चार सूत्र थे, स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करना और स्वराज आंदोलन को निरंतर गति प्रदान करना। तिलक जी सिर्फ आजादी के पक्षधर नहीं थे, वह इस देश में स्वदेशी आंदोलन को भी व्यापक बनाना चाहते थे। वह चाहते थे, देश के कुटीर उत्पादों को महत्व मिले, लोग उसका ही अधिकतम उपयोग करें। अंग्रेजों ने अपने देश की वस्तुओं का को भारत मे खपाने का सिलसिला शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे लोग उसी के आदी होते चले गए। यानी स्वदेशी वस्तुओं से दूर होने लगे इसलिए तिलक जी ने स्वदेशी पर पूरा जोर दिया। मैकाले ने अपनी शिक्षा नीति के बल पर इस देश को भ्रष्ट करने की कोशिश शुरू कर दी थी । इसे देखकर तिलक जी विचलित हुए और राष्ट्रीय शिक्षा की वकालत करने लगे। उन्होंने अपने अखबारों के माध्यम से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान भी किया और जल्दी- से -जल्दी स्वराज मिले, इसके लिए उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ लगातार लिखने का सिलसिला भी शुरू कर दिया। 'केसरी' में लिखे गए उनके संपादकीय की ये पंक्तियां काफी लोकप्रिय हुई, जिसमें वे कहते हैं "पराधीन देश चाहे कितना भी विवश क्यों न हो, एकता, हिम्मत और दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे वह बिना किसी हथियार के भी अहंकारी सत्ता को धूल चटा सकता है "। उनकी इन पंक्तियों ने देश के लोगों को हौसला मिला। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने भी जब तिलक के अवदान को देखा, तो वे तिलक जी से बहुत प्रभावित हुए और तिलक के लिए उन्होंने कहा,"तिलक अपने आप में गीता हैं। गांधी जी ने लिखा, "तिलक-गीता का पूर्वार्ध है, 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' और उत्तरार्ध है, 'स्वदेशी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।" गांधी जी ने तिलक जी से ही प्रभावित होकर पूरे देश में स्वराज आंदोलन को और स्वदेशी आंदोलन के कार्य को और अधिक गतिशील किया। गांधी तिलक जी के समूचे जीवन से बहुत प्रभावित थे। तिलक जी ने गणेश उत्सव, शिवाजी उत्सव आदि जैसे कार्यक्रमों को शुरू किया। आज पूरे देश में गणेशोत्सव मनाने की जो परंपरा शुरू हुई ,है वह तिलक जी की ही देन है। दरअसल इस उत्सव के पीछे केवल गणेश वंदना का भाव नहीं था, एक भावना यह भी थी कि लोग इसी बहाने नौ दिन एकत्र होंगे और अपनी सांस्कृतिक जीवन शैली को और संपुष्ट करेंगे। तिलक जी उत्सव के दौरान विभिन्न प्रकार के आयोजन करते थे, जिससे प्रतिभाओं का भी विकास होता था और राष्ट्रप्रेम के साथ ही अपनी सनातन संस्कृति के प्रेम की भावना और प्रगाढ़ होती थी।


पत्रकारिता के प्रति समर्पण


पत्रकारिता के प्रति तिलक जी के समर्पण को समझने के लिए यह उदाहरण भी पर्याप्त है। जब 1891 में तिलक जी चिपलूणकर जी से अलग होकर केसरी और मराठा का स्वतंत्र रूप से प्रकाशन करने लगे, तब उनके सामने आर्थिक दिक्कतें जरूर आई, लेकिन वह पूरी हिम्मत के साथ अखबार का प्रकाशन में लगे। तिलक जी उस वक्त जाने-माने वकील भी थे और उनकी मासिक आय लगभग दो सौ रुपये थी । इसलिए वह हिम्मत करके केसरी का प्रकाशन जारी रख सके। अखबार को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए उन्होंने एक प्रेस भी खरीद लिया था। उसका नाम उन्होंने रखा, आर्यभूषण प्रेस । एक बार की बात है, जब पुणे में प्लेग फैला, तो कुछ प्रेस कर्मी छुट्टी लेकर अन्यत्र चले गए। तब प्रेस के प्रबंधक ने तिलकजी से कहा, "इस बार अपना अंक शायद नहीं निकल पाएगा", तब तिलक जी ने दृढ़ता के साथ कहा था कि "इस महामारी के कारण हम और तुम भले मर जाएं, लेकिन अगला अंक निकल कर डाक से जाना ही चाहिए । जो भी हो, अखबार का प्रकाशन रुके नहीं ।" और केसरी का अंक प्रकाशित हुआ । तो ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्तित्व का नाम था, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, जिनके बारे में हम कह सकते हैं कि वह भारतीय पत्रकारिता के माथे पर दमकते पवित्र तिलक थे।


'गीता रहस्य' एक कालजयी कृति


पत्रकारिता के क्षेत्र में तिलक जी के योगदान को हम सब बेहतर तरीके से जानते हैं लेकिन कालजयी सर्जन के क्षेत्र में उनका जो योगदान है, उसका भी परिचय लोगों को होना चाहिए। उनकी कृति 'गीता रहस्य' से अनेक लोग परिचित है। अपने विद्रोही तेवर के कारण अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके तिलक जी समय-समय पर प्रताड़ित तो होते रहते थे , गिरफ्तार भी होते थे लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 1908 को एक बार गिरफ्तार करके छह साल के लिए मंडाले जेल (बर्मा) भेज दिया। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला क्योंकि उन्होंने एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था, 'देश का दुर्भाग्य'। इस लेख में उन्होंने अंग्रेजी सरकार की कटु निंदा की थी। उन्होंने प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस द्वारा बम से किए गए हमले का भी समर्थन किया था। अंग्रेज सरकार इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी और तिलकजी को फौरन गिरफ्तार कर लिया। अपनी गिरफ्तारी के बावजूद तिलक जी हताश-निराश नहीं हुए और जेल में ही स्वाध्याय करने लगे। वहां रहते हुए उन्होंने मात्र पाँच महीने में नौ सौ पृष्ठों का एक विशाल ग्रंथ रच दिया, जिसे पूरी दुनिया 'गीता रहस्य' के नाम से जानती है। 2 नवंबर 1910 से 30 मार्च 1911 तक की अवधि में तिलक जी ने इस ग्रंथ को पूर्ण किया और 'श्रीशाय जनतात्मने' कह कर जनमानस को समर्पित कर दिया। जेल में उन्हें जो कागज-पेंसिल मिली, उसी के सहारे उन्होंने इस अमर कृति की रचना की ।सन 1914 में जब वे रिहा हुए तो उन्हें तत्काल उनकी पांडुलिपि नहीं मिल सकी। समय बीतता गया, तो उनके चाहने वालों ने तिलकजी से कहा, "पता नहीं अब क्या होगा। कहीं आपकी कृति को नष्ट न कर दिया जाय"। यह सुनकर तिलक जी ने मुस्कराते हुए कहा, "चिंता की कोई बात नहीं। वह पूरा का पूरा ग्रंथ मेरे दिमाग में सुरक्षित है। मैं उसे जैसा का तैसा लिख डालूंगा।" हालाँकि ऐसी नौबत नहीं आयी। कुछ समय बाद उन्हें पांडुलिपि वापस लौटा दी गई। और 1915 में गीता रहस्य का पहला संस्करण प्रकाशित होकर सामने आ गया। सन 1900 में छत्तीसगढ मित्र नामक मासिक का सम्पादन करके छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का आगज करने वाले पंडित माधवराव सप्रे ने उस कृति का हिंदी में अनुवाद किया जो 1916 में प्रकाशित हुआ। तिलक जी ने जेल में रह कर गीता का जो अध्ययन किया, उससे उनका यही निष्कर्ष था कि गीता निवृत्तिपरक नहीं है , यह कर्मयोग परक है। यानी गीता हमें पलायन नहीं सिखाती, वह जूझने का संस्कार देती है । गांधी जी ने भी तिलक जी के इस काम की सराहना की। गांधीजी गीता को 'गीतामाता' कहते थे । तिलक जी के गीता रहस्य पर गांधी जी ने कहा था, " गीता पर तिलक जी की टीका उनका शाश्वत स्मारक है । स्वतंत्रता के युद्ध में विजयश्री प्राप्त करने के बाद भी वह यथावत बना रहेगा ।" क्रांतिकारी संत अरविंद घोष ने भी कहा था, "गीता रहस्य नैतिक शक्तियों का योग्य निदर्शन है।" बाद में तो गीता रहस्य का अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया। मैंने पहले माधवराव सप्रे द्वारा अनूदित गीता रहस्य को पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त किया, बाद में डॉ मोहन बाडे द्वारा अनूदित ग्रन्थ को भी देखा। तिलक जी ने 'वेद काल का निर्णय' , 'आर्यों का मूल निवास स्थान ', 'वेदों का काल-निर्णय और वेदांग ज्योतिष ', 'हिन्दुत्व' आदि कृतियों का भी प्रणयन किया। पता नहीं, सृजन का समय कब निकालते थर। नई पीढ़ी के पत्रकारों को तिलक जी के प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए। बच्चों को भी उनके जीवन के अनेक प्रेरक प्रसंगों की जानकारी दी जानी चाहिए।

रेणु

रेणु

आदरणीय गिरीश जी , माँ भारती के अमर सपूत बाल गंगाधर तिलक को समर्पित बहुत ही सार्थक और सटीक लेख . गणेश उत्सव शुरू होने से ज्यादा उनकी पहचान| एक प्रखर विचारक और निर्भीक पत्रकार की है , जिन्होंने तत्कालीन समाज को अपनी लेखनी द्वारा नयी राह दिखने का भरसक प्रयास किया | और हमारे बचपन में तो स्कूली किताबों में उनके व्यक्तित्व और राष्ट्र के प्रति उनके योगदान के बारे में खूब पढ़ाया जाता था , पर आजकल का पता नहीं / | ं विराट व्यक्तित्व तिलक जी को कोटि कोटि नमन है \. सादर आभार इस सार्थक लेख के लिए

24 जुलाई 2019

अश्मीरा अंसारी

अश्मीरा अंसारी

बहुत ही बढ़िया

24 जुलाई 2019

सौरभ श्रीवास्तव

सौरभ श्रीवास्तव

गणेश उत्सव की शुरुआत इन्होने ही की थी यह सच है ..

24 जुलाई 2019

डॉ राकेश 'चक्र'

डॉ राकेश 'चक्र'

बहुत ही अच्छी जानकारी गिरीश जी . और बेहद प्रेरक व्यक्तित्व के रहे हैं तिलक जी . अगर ये वीर सपूत न होते तो आज भारत इन उचाईयों को छु नहीं सकता था . इनका जीवन देश सेवा में गुज़रा और आज हम इन्ही के बारे में कम जानते हैं . आपके लेख को बहुत बहुत सराहता हूँ .

24 जुलाई 2019

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नर्क का टेंशन नहीं

26 मई 2016
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वे अभी-अभी कुम्भ-स्नान करके लौटे थे और इस कारण पाप-मुक्त होने के अहसास से भरे हुए थे.  मुझे देख कर मुस्कराए और बोले- ''देखो, हम तो अपने सारे पाप धो कर आ रहे हैं और तुम हो कि कलम घसीटने में ही मगन हो। ''  मैंने पूछा -''सच बोलना, सारे-के-सारे पाप धुल गए हैं न ?'' प्रश्न सुन कर वे सोच में पड़ गए, फिर बो

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इक मछली कित्ता पछताई

26 मई 2016
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पानी से जब बाहर आईइक मछली कित्ता पछताईपानी से जब दूर हुई तोमछली तूने जान गँवाईमछली बच गई मगरमच्छ से इंसानों से ना बच पाईहै शिकार पर बैठी दुनिया मछली बात समझ न पाईस्वाद की मारी इस दुनिया मेंमछली ज़्यादा जी ना पाईसावधान रहना तू मछली जाल बिछा बैठे हरजाईनदी तेरा घर है ओ मछली भले जमी हो उसमे काईमगरमच्छ वो

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व्यंग्य / हार पर रार

27 मई 2016
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पार्टी चुनाव हार चुकी थी और उसके बाद इस बात के लिए मंथन चल रहा था कि हार का ठीकरा किसके सर फोड़ा जाए. बैठक शुरू होने के पहले ही कुछ लोग एक-दूसरे को घूर रहे थे और इशारे--इशारे में कह रहे थे, 'ससुरे, तुम्हारे कारण ही पार्टी की दुर्गति हुई है'. पार्टी अध्यक्ष के कहने पर एक नेता  खड़ा हुआ और शुरू हो गया-

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लघुकथा / 'ब्रांडेड' जींस

27 मई 2016
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बेटा मॉल गया. ज़िद करके 'लेटेस्ट फैशनवाली' 'ब्रांडेड' जींस खरीद ली. कई जगह से फटी, मगर कीमत चार हजार। माँ को दुःख हुआ, पर कोई बात नहीं, बेटे का शौक पूरा हो गया। छह माह बाद बेटे ने कहा - ''अब ये जींस पुरानी हो गयी, नई खरीदूंगा, वो पीछे से भी फटी है... लेटेस्ट फैशन।'' माँ ने सर पीट लिया- ''ठीक है, तो य

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व्यंग्य / लेखक उठ...जुगाड़श्री बन

27 मई 2016
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लेखक उठ। जुगाड़ जमा। सम्मान पा। सरकारी मदद से किताब छपवा। सच्चे लेखक ऐसा नहीं करते, पर तू कर। नेताओं के कर-बेशरम (अब करकमल कहाँ रहे?) से विमोचन करवा। खुद को धन्य समझ। सरकारी खरीदी का भी जुगाड़ जमा। लेखक उठ। अफसरों के पीछे भाग। आदर्शवादी मत बन। आदर्श केवल च्यवनप्राश की तरह चाटने के काम आता है। च्यवनप्र

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व्यंग्य / 'पीने' की आज़ादी दई दो

28 मई 2016
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आज़ादी  उनका तकियाकलाम है. जहां कही भी उन्हें मौका मिलता, आज़ादी को फिट कर देते हैं और हिट हो जाते है ।  एक दिन हद हो गई।  कहने लगे -''हमें पीने की आज़ादी चाहिए''. हमने कहा -''पानी पीने पर तो कोई प्रतिबन्ध नहीं है.'' वे बोले- ''मैं पानी नहीं, मदिरा की बात कर रहा हूँ। सुना है, सरकार दारूबंदी कर रही है.

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व्यंग्य / कविता और 'एसी'

28 मई 2016
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गरमी में अगर  'ए.सी' काम न करे तो कुछ कवि भयंकर रूप से बेचैन हो जाते हैं. लगभग बौराए -से. जो महाकवि किस्म के होते है, वे बाकायदा छटपटाए -से नज़र आते हैं.  एक दौर था, जब  मौसम की मार झेल कर भी कविता लिखी जाती थी, पर अब तो रंज कवि को होता है मगर आराम के साथ. आजकल मौसम अनुकूल हो तभी कविता प्रकट होती है.

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लघुकथा / अहसास

28 मई 2016
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बाहर आग बरस रही थी. पिता का अध्ययन-कक्ष भी तप रहा था. पसीने में डूबे पिता लिखने में मगन थे. अपने 'एसी'-कक्ष से निकले बेटे को पिता पर दया आई, वह बोला-''पिताजी, आपके कमरे में भी 'एसी' लगवा देता हूँ. भीषण गर्मी सहते हुए आप कैसे लिख लेते हैं ?'' पिता मुस्करा कर बोले- ''शरीर से बहता पसीना मुझे मनुष्य बना

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ग़ज़ल

28 मई 2016
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कुछ लालच में पड़ कर के यह रीत चलाना ठीक नहीं अभी उगे हैं जो पौधे बरगद बतलाना ठीक नहींजिनका जो हक है वो उनको मिल जाएगा खुद इक दिन पर जो लायक नहीं उन्हीं के गुण को गाना ठीक नहींइंसानो को इंसा ही रहने देना ओ नादानोनेक बड़े होंगे उनको भगवान बताना ठीक नहींचेहरा सब कुछ कह देता है इतना तो हम भी समझें जो खुश

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ग़ज़ल

29 मई 2016
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बाहर का जब अच्छा खाना लगता है यानी अब ये घर बेगाना लगता हैहम भी अच्छे बनते पर हालात न थे हमको तो बस एक बहाना लगता हैइतनी जल्दी मंज़िल किसको मिलती है कभी-कभी तो एक ज़माना लगता हैज्ञान अनुभवी लोगो से ही मिलता है सच बोलें तो एक खज़ाना लगता हैपी ली जितनी पीनी थी मयखाने में चलो के अब खाली पैमाना लगता हैसच्च

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व्यंग्य / 'इनबॉक्स' वाला ई- मनुष्य

30 मई 2016
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ई जो नवा ज़माना है न साहेब, ई तो सचमुच  'ई'-मनुष्य का ही है.बोले तो,  'ई-मेल' का है। क्या  'मेल' और क्या  'फी-मेल', हर कोई इसी से खेल रहा है। हर तरफ  'ई' है।  'ई-बैंकिंग',  'ई-मार्केटिंग', 'ई-गवर्नेंस', 'ई-लूट', 'ई-ठगी', 'ई- लव', 'ई-रोमांस' आदि-आदि। कुछ  ' बुड़बक लोग हमसे पूछते हैं,  ''ई' का है भाई ?'

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ग़ज़ल

1 जून 2016
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कोई तकरार लिखता है कोई इनकार लिखता हैहमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है वे अपने  खोल में खुश हैं कभी बाहर नहीं आतेमगर ये बावरा दुनिया, जगत, व्यवहार लिखता हैये जीवन राख है गर प्यार का हिस्सा नहीं कोई ये ऐसी बात है जिसको सही फनकार लिखता हैकोई तो एक चेहरा हो जिसे दिल से लगा लूं मैं यहाँ तो हर कोई आ

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ग़ज़ल

2 जून 2016
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हैं भले अपने मगर हर बार करते हैं पीठ पीछे ही हमेशा वार करते हैंहै अनोखा फलसफा उनसे मिले धोखाआप जिनको डूबकर के प्यार करते हैंप्यार का अहसास कर पाओ तो अच्छा है जो हैं नकली वे अधिक इज़हार करते हैंहमने ही बोला था राजा हो गया नंगाहमको दो फांसी ये हम स्वीकार करते हैंलोग ऊँचा और नीचा कर रहे अब तक हम सभी से

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ग़ज़ल

3 जून 2016
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कब तलक नफरत जिएंगे प्यार की बातें करेंघर से बाहर भी चलें संसार की बातें करेंयुद्ध जीवन का लड़ेंगे जब तलक ये साँस है हम करेंगे जीत की, वे हार की बातें करेंपहले कुछ कर के दिखाएँ तो लगे कुछ बात है बाद में हम सब यहाँ अधिकार की बातें करेंज़िंदगी के पल हमें गिन कर मिले हैं दोस्तो काम की हो बात क्यों बेकार क

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व्यंग्य / ' सूखे ' का परम ' सुख '

3 जून 2016
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अपने यहाँ सूखा पड़े तो कुछ लोग  बड़े सुखी टाइप के हो जाते हैं. बाढ़ आ जाए या महामारी तो वे गदगद हो कर भगवान के आभारी हो जाते  हैं. ये सारे अवसर किसी उत्सव से भी कम नहीं होते।मंत्री से लेकर संत्री और अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक धन्य हो जाते हैं. कुछ सरकारी घरों में औरते यही मनाती है कि प्रभो, इस बार भी

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व्यंग्य / नारेबाज़ी में नंबर वन.....

4 जून 2016
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विश्व के तमाम देशो के बीच अगर नारेबाजी की प्रतियोगिता हो तो अपना देश हमेशा पहले नंबर पर रहेगा। एक-से-एक  नारे । कुछ लोग तो जीवन भर नारे की ही खाते हैं. ये और बात है कि कुछ अधिक खा लेते हैं तो अपच होने लगती है. यानी काली कमाई जमा होती जाती है. तो का करें। मजबूरी में विदेश जाकर काला धन जमा करके लौटते

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व्यंग्य महान पर्यावरण प्रेमी

5 जून 2016
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 अपुन के यहाँ भाई लोग कुछ इस तरह से पर्यावरण दिवस मनाते हैं,पहले सौ पेड़ काटते हैं और उस पर दस पेड़ लगाते हैं. और हर दस पेड़ों में सोचिए तो ज़रा कितने बच पाते हैं ? जब-जब अपने देश में, पर्यावरण दिवस सम्पन्न होता है, और उसी दिन से पर्यावरण और ज्यादा विपन्न होता है। परसोंं एक पर्यावरण प्रेमी मिल गए।

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व्यंग्य लघुकथा > अर्थी पर लाल बत्ती...

6 जून 2016
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उनको लालबत्ती से बड़ा प्रेम था.कार में बैठे हैं तो सामने लाल बत्ती, बैलगाड़ी पर भी सवार होते तो सामने लालबत्ती. कभी-कभार नाटक-नौटंकी करने के लिए रिक्शे पर चलते तो भी तो हुड पर लालबत्ती. घर पर रहते तो बाहर लालबत्ती घूमती रहती. लोग उन्हें 'लालबत्ती वाले भैयाजी' कहने लगे. एक दिन वे मर गए. तब भी उनकी अंति

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ग़ज़ल

7 जून 2016
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आग की बारिश में थोड़ा - सा झुलस कर देखियेधूप है कितनी अधिक बाहर निकलकर देखियेतोड़ते हैं लोग पत्थर रोटियों के वास्तेउन सरीखा ज़िंदगी का रूप धरकर देखियेहम चले जायेंगे इक दिन नोच कर बगिया मगरसौप जायेंगे समय को हाय बंजर देखियेखेत, नदियाँ और हरियाली इन्हें भाती नहींये नए साहब हमें लगते हैं जोकर देखियेधूप मे

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लघुकथा / काशीवास

8 जून 2016
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बुजुर्ग पिता एक दिन बोले , ''बेटे श्रवण, कुछ दिन काशीवास करना चाहता हूँ।''बेटा बड़ा प्रसन्न हुआ.पत्नी के दबाव के चलते वह बहुत दिनों से पिता से मुक्ति पाने का उपाय सोच ही रहा था. उसने 'तत्काल' में टिकट खरीदा और पिता को काशी पहुँचा दिया। पिता को एक धर्मशाला में जगह मिल गई. उन्होंने बेटे को आशीर्वाद दिय

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तब - अब

8 जून 2016
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पहले वो आदमी था, अब नेता....

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व्यंग्य / उनकी भैंसिया चोरी चली गई

9 जून 2016
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हमारे यहाँ मंत्री-विधायक-नेता तो महत्वपूर्ण जीव होते ही है  उसकी भैंसें भी कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं। लोग मंत्री के कुत्ते से, उसकी भैंसों से, उसकी गायों से, उसके दरवाजे से, चौखट से, उसके पेड़-पौधों से सबका सम्मान करने लगते हैं। मंत्री न दिखे तो उसके पालतू कुत्ते को ही नमस्ते करके धन्य हो जाते हैं। ए

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व्यंग्य/ व्हाट्सएप के 'एडमिन'...

14 जून 2016
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जैसे साहित्य में विफल लेखक आलोचक बन जता है, उसी तरह जीवन में विफल आदमी 'व्हाट्सएप-ग्रुप' बना कर सफल 'एडमिन'  हुइ जाता है.अपना तो अनुभव यही बताता है. (अंदर की बात जे है कि मैं भी एक एडमिन हूँ) 'व्हाट्सएप-ग्रुप' के  कुछ एडमिनों की शारीरिक संरचना वैसे तो आम मनुष्य के जैसी ही होती है, पर वे अपनी अतिरिक्

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व्यंग्य/कैसे-कैसे इतिहास पुरुष ...

16 जून 2016
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ऐसे लोगों से हमको बहुत ही डर लगता है जो 'इतिहास - पुरुष' किस्म के होते हैं। यानी इतिहास के जानकार। कुछ सच्चे जानकार होते है तो कुछ बड़े झुठल्ले। जिन्होंने इतिहास के साथ साथ  'फेंकोलाज़ी' में भी डिग्री हासिल कर ली हो। यानी बस फेंके जाओ, सच हो चाहे झूठ। मनगढ़ंत बातों को इतिहास बता कर निकल लो पतली गली से।

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ग़ज़ल

17 जून 2016
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पहले बहुत मुखर रहते थे, भर देते थे जोश पिताअब तो बस खोए-खोए-से रहते हैं खामोश पिताइनका भी इक दौर था सबसे कितना ये बतियाते थेअब तो है केवल तन्हाई, किसको दे फिर दोष पिताजिनको पाला-पोसा वे सब निकले नमकहराम बड़ेऐसी औलादों पे अक्सर करते हैं अफसोस पिताकभी नहीं फरमाइश करते, पढ़ पाओ तो पढ़ लो मनजितना भी मिल ज

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व्यंग्य/टकराना एक भू माफिया से एक दिन

18 जून 2016
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वह शख्स खाली पडी जमीन को खा जाने वाली नजरो से घूर रहा था. उसे देख कर मुझे लगा, जैसे कोई बलात्कारी, किसी युवती को निहार रहा है.... गोया  कोई भूखा रोटी को देख रहा है.....  जैसे कोई भूतपूर्व नेता अपनी छिन चुकी कुर्सी को देख रहा है. भू माफिया की जीभ भी बार-बार बाहर निकल रही थी. या फिर यूं कहें कि श्वानट

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पितृ दिवस पर दोहे

19 जून 2016
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पिता साथ हो तो रहे, इक सुंदर अहसास। 'कल्पतरु' जैसे कोई, हो बच्चों के पास.पिता नारियल की तरह, करें बात पर गौर. भीतर शीतलता भरी, बाहर भले कठोर।पिता सदा ही प्रिय रहे, ज्यों बरगद की छाँव।लगा दिया घर के लिए, अपना जीवन दांव।जिनके कांधों ने दिया, हमको इक आकाश. भूल नहीं सकते कभी, अपना वो इतिहास.माता से ममता

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योगासन बनाम भूखासन

20 जून 2016
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उसका नाम है रामदीन. वह भी ''योगासन'' करना चाहता है पर अभी वह ''भूख-आसन'' का शिकार है. उसे देख कर यह कविता बनी  -भूखे को रोटी भी दे दो,फिर सिखलाना योग .बड़ा रोग है एक गरीबी, चलो भगाएं रोग.खा-पीकर कुछ अघा गए हैं, अब सेहत की चिंता जो भूखे हैं उन लोगो को कौन यहां पर गिनता। पहले महंगाई से निबटो, भ्रष्टाचा

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सोशल मीडिया : दस दोहे

21 जून 2016
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'व्हाट्सएप' के बन गए,  'एडमिन' जब से यार . इसे जोड़, उसको हटा, ये ही कारोबार.फेसबुक्क में खोल कर, खाता किया कमाल .जिसकी जितनी है अकल, वैसी उसकी चाल.अपना नहीं विचार कुछ, केवल  'कॉपी-पेस्ट' .मौलिक-चिंतन के बिना, कैसे होंगे 'बेस्ट''व्हाट्सएप'  में दिन गया, और गई फिर रात .सुबह देर तक सो रहे, यही नई सौगात

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वो एक बैरागी जो बन गया बंदासिंघ बहादुर

21 जून 2016
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पहले वह केवल बैरागी था। प्रभु भक्ति में रमा हुआ। उसके अनेक नाम थे। कश्मीर के राजौरी का एक राजपूत था वह। बचपन का नाम था लक्ष्मण देव। कहते हैं कि एक बार किशोरावस्था में उसने हिरनी की शिकार किया। उस हिरनी के पेट में दो शावक (बच्चे) थे जो उसके सामने मर गए उन्हें देख कर लक्ष्मणदेव के मन में बैराग-भाव पनप

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ग़ज़ल

23 जून 2016
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पूछो तो इक  बार ज़रा-सा अरे कहाँ से आई है कुरसी के चेहरे पर ये जो लाली है, चिकनाई है धोखा देना, लूटपाट ही जिन लोगो की फितरत हैअब तो वे ही नायक अपने अल्ला-रामदुहाई है बहुत सहा है जुल्म मगर अब और नहीं सह पाएंगेअभी बगावत शुरू हुई है अभी तो ये अंगड़ाई हैशातिर लोगों को सम्मानित करना अब तो फैशन है जो शरीफ ह

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व्यंग्य/ महंगाई बहन, भ्रष्टाचार भाई

24 जून 2016
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वह जान बचा कर  भाग रही थी, तेजी के साथ. बड़बड़ाती जा रही थी-''हाय दइया, ई का हो रहा है. मेरे पीछे अचानक ये गुंडे कैसे पड़ गए?''  महंगाई बुरी तरह घबरा गई थी. सोच रही थी कि शायद अब मेरा विनाश हो कर रहेगा। उसे अपनी ताकत पर  बड़ा गुरूर था. लोग उसे डायन कहने लगे थे. पर जब सरकार ने फरमाया है कि हम महंगाई को ख़

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लघुकथा / विकलांग कौन?

25 जून 2016
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रामप्रसाद बैसाखियों के सहारे चला जा रहा था. भीड़-भाड़ वाला इलाका था । रास्ते की चिल्ल-पों, वाहनों की तेज आवाजाही से परेशान था. एक-दो बार तो भीड़ का धक्का खा कर गिरते-गिरते बचा।  वह सोचने लगा, 'क्या लोग इतनी जल्दी में हैं कि सामने एक  विकलांग व्यक्ति भी चल रहा है, यह नज़र नहीं आता?' रामप्रसाद को लगा, उसे

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ग़ज़ल

27 जून 2016
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कितना सुख पहुंचाता मौन जब जीवन में आता मौनशोर बहुत हो चौतरफा तो मन को केवल भाता मौनकुछ ना बोलो नादानो सेचुप रहना समझाता मौनबड़ी साधना करते हैं फिर तब जा कर के आता मौनपहले कहते मौन रहो तुम बाद में उन्हें सताता मौनसुन पाओ तो सुन लेना तुम कितना सुंदर गाता मौनरोते हुए आदमी आता पर इक दिन है जाता मौनशोरभरे

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लघुकथा / जंगल से पलायन

29 जून 2016
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दो दिनों के लिए जंगल खाली हो गया. सारे खूंख्वार जानवर पलायन कर गए. कारण, जंगल में कुछ नेता चिंतन-मनन के लिए एकत्र हुए थे. दिन में सम्मेलन और रात में तरह-तरह के शिकार. नेताओं के पुराने शौक से जंगल वाकिफ था. जानवरों ने रिस्क लेना ठीक नहीं समझा. जान बचाने के लिए वे फौरन पलायन कर गए.

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लघुकथा / बलात्कार

1 जुलाई 2016
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उस महिला के साथ दो बार बलात्त्कार हुआ। एक बार गुंडों ने किया, दूसरी बार 'सेल्फी' लेने वालों ने।

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ग़ज़ल

2 जुलाई 2016
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अच्छा लिख, सच्चाई लिख बेहतर पुण्यकमाई लिखजलना-कुढ़ना छोड़ अरे मत जीवन दुखदाई लिखबहुत हो गया अपना सुख अब तो पीर पराई लिखदेख रहा गलती सबकी अपनी एक बुराई लिखगीत अमरता के मत गा जीवन है परछाई लिखकलम चले तो बस ऐसी जाग उठे तरुणाई लिखजीवन का स्वागत पंकज होगी मगर विदाई लिख

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व्यंग्य / तरह-तरह के योगासन

5 जुलाई 2016
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योग दिवस तो एक दिन आता है और चला जाता है किन्तु अपने यहाँ रोज योगासन जारी रहता है। गुंडे 'गुंडासन' कर रहे हैं, 'रेपासन' उनका प्रिय आसन है। पुलिस वाले 'डण्डासन' कर रहे हैं. टीवी चैनल वाले 'ऐडासन' (उर्फ़ विज्ञापनासन) में लगे हैं. कुछ व्यापारी 'लूटासन' कर रहे हैं. नेता 'झूठासन' वे व्यस्त हैं।  सरकार 'कर

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तोहफा ईद का.....

7 जुलाई 2016
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1सहते है तकलीफ तब, हो खुशियों की दीद। पहले हम रोज़े रखे, बाद में हासिल ईद।.2राहेखुदा के वास्ते, रोज़ा औ रमज़ान। अंत में तोहफा ईद का, खुशियों का फरमान।3रोज़ा अपना फ़र्ज़ है, खुश होता अल्लाह। रोज़ा पहले, ईद फिर, नेक बने हर राह।।

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सेल्फी' के मारे

9 जुलाई 2016
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उस दुखिया महिला के साथ दो बार बलात्कार हुआ. पहला गुंडों ने किया, फिर दूसरा 'सेल्फी' लेने वालों  ने. उस दिन घर पर बैठी थी कि महिला-संगठन आ गया।  मिसेज़ पाउडरवाला ने पूछा - ''तो तुम्हारे साथ ही 'वो' हुआ था?'' दुखिया कुछ बोली नहीं। चुप रही।  संगठन की बाकी महिलाएँ दुखिया के अगल-बगल खड़ी हो गई। सब ने अपना-

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ग़ज़ल

13 जुलाई 2016
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भीतर अगर प्रकाश रहेगाखुद पर ही विश्वास रहेगाउड़ने को तैयार रहो बस तेरा यह आकाश रहेगाजिसका होंगा काम उसी का इक सुंदर इतिहास रहेगाजो चलता है लीक से हट कर उसका ही उपहास रहेगानेकी कर तेरी करनी का दुनिया को अहसास रहेगासच्चा है तो जीतेगा ही फेल नहीं वह पास रहेगाउससे क्या उम्मीद करें जो सुविधाओं का दास रहेग

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ग़ज़ल

21 जुलाई 2016
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वही सफल है जिसे ध्यान है जीवन का भी संविधान है ईश्वर-चर्चा बाद में क्योंके भूखा अपना वर्तमान है  फूल खिले हैं महकेंगे भी   अंत मगर इक  श्मशान है जीवन जीना एक कला है वही सफल है जिसे ज्ञान हैविफल आदमी के अधरों पर किन्तु, परन्तु का गान है  कर्ज में डूब गए हैं सारेलेकिन ऊंची बड़ी शान है बहुरंगी है माटी ज

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व्यंग्य / अभिनेता बनाम नेता

22 जुलाई 2016
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अपने नेताओं के भाषण सुन लो तो लगेगा दुनिया का सबसे बड़ा चरित्रवान कोई है तो यही है. ये नेता कभी भी अभिनेताओं की  रोजी-रोटी छीन सकते हैं. इनकी आबादी बढ़ जाए तो देश फौरन स्वर्ग बन जाए और हम लोग स्वर्ग-वासी होने का सुख लूटें। लेकिन गनीमत है अभी देश पूरी तरह से स्वर्ग नहीं बन सका है.  नेताओं के असाधारण कु

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ग़ज़ल

26 जुलाई 2016
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इन आंसुओं को इस तरह जाया न कीजियेलोगों के तंज दिल में बसाया न कीजियेकुछ लोग यही चाहते हैं सब दुखी रहेंउनको कोई भी ज़ख्म दिखाया न कीजियेजिनसे हमें धोखा मिलें उनसे रहें बच करभूले से उनसे हाथ मिलाया न कीजियेक्या ज़िंदगी का कोई भरोसा भला कहोइस बात को कभी भी भुलाया न कीजियेजितने हैं लोग ओछे 'शो-बाज़' है बड़

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व्यंग्य / 'सोशल' बनाम 'वोकल' मीडिया

29 जुलाई 2016
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' सोशल मीडिया'   के एडमिन कमाल के होते ही है,  पर 'वोकल मीडिया' के एडमिन चुगलीप्रसाद पाण्डे की बात ही निराली है. पढ़िए,  उनके बारे में 

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मित्र-दिवस : 'मित्रचरित मानस'

7 अगस्त 2016
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दोहा मित्र वही तकलीफ में, फ़ौरन आगे आय। जो है नकली वह तुरत, छू मंतर हो जाय।चौपाई  किसको आखिर मित्र बनाएँ, ज्यादातर तो ''चून'' लगाएँफिर भी कुछ अच्छे होते है, दिल से वे सच्चे होते है. सुख में सारे संग आ जाते, मित्र ही दुःख में साथ निभाते अगर मित्र से धोखा पाते, जीवन भर कितना पछताते मित्र बनाएं मगर ध्या

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व्यंग्य / अहा, मनोरम बाढ़

11 अगस्त 2016
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बारिश का मौसम आते ही मंत्री जी चहक उठते है. जैसे कुछ लोग वसंत आने पर बहक उठते हैं. मंत्री जी अपने हमप्याला मित्रो से कहते हैं, बरसात में रात को 'पीने' का अपना ही मज़ा है'. क्या पीते हैं, यह मत पूछिए, पर बड़े चाव से कुछ-कुछ  पीते जरूर हैं.लेकिन उन्हें सबसे अधिक मज़ा उस वक्त आता है, जब वे बाढ़ग्रस्त इलाके

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दोहे / हर बहना रक्षित रहे

18 अगस्त 2016
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रक्षा का यह बंध है, उज्ज्वल इसकी रीत। भाई-बहन के नेह का, गूँजे नित संगीत । सूत्र नहीं यह रेशमी, भावों का अनुबन्ध। भाई-बहिन का नेह है, ज्यों मधुरिम मकरंद। हर बहना रक्षित रहे, राखी का सन्देश । हर नारी को नित मिले, भयमुक्त परिवेश।। निर्मल धागा प्रेम का, है कितना मजबूत। हर पल लगता बहन को , भैया

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साहित्य- चिंतन

23 अगस्त 2016
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साहित्यकार लोक हित का प्रवक्ता होता है। लोकमंगल ही साहित्य की आत्मा है. जो साहित्य इसके विपरीत आचरण में संलिप्त है, वह साहित्य नहीं, एक तरह का सामाजिक अपराध है. .आज साहित्य खेमो में बँटा नज़र आता है। सवर्ण-साहित्य, दलित-साहित्य , हिन्दू -साहित्यकार, मुस्लिम-बुद्धिजीवी , जैन-सन्त , हिन्दू-सन्त। हद है।

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व्यंग्य / अब तो बस बिटिया ही दीज्यो

24 अगस्त 2016
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चुगलीप्रसाद जी के घर बच्चा होने वाला है । उनकी बहू गर्भवती है। पहले सोच रहे थे, लड़का हो तो वंश चले, पर जब से ओलम्पिक में भारतीय कन्याओं ने पदक जीते हैं और उनकी करोडो की कमाई होने की खबर भी सुनी है, तब से उनकी लार ही टपकने लगी है। अब उन्होंने पुत्र जन्म की कामना ही छोड़ दी है. अब वे सबसे कहते हैं

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कविता / बची रहे सम्वेदना की हरीतिमा

26 अगस्त 2016
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दाना मांझी, तुम्हारे कंधे पर पत्नी का शव नहीं मर चुके समाज की लाश है। पत्नी की आत्मा तो सिधार गई परलोक किन्तु कंधे पर छोड़ गई समाज का वो चेहरा जो बताता है कि सम्वेदना अब केवल सोशल मीडिया में विमर्श की चीज भर है। शव को चार कन्धे भी नहीं मिलते जब तक आत्मा को झकझोरा न जाए। कालाहांडी में केवल भूखे

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ग़ज़ल / चिड़िया

29 अगस्त 2016
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सुंदर-प्यारे गीत मनोहर गा कर हमें सुनाएगी चिड़िया के गर पंख बंध गए तो कैसे उड़ पाएगी उसका है आकाश उसे भी हक है पंख पसारे वो चिड़िया को आज़ाद करें तो दूर तलक वह जाएगी नन्ही चिड़िया कितनी प्यारी यह दुनिया है उसकी भी बेहद खुश होगी जब अपने नन्हे पर फैलाएगीपिंजरे में क्यों कैद क

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कर देना क्षमा

6 सितम्बर 2016
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दे रहा हूँ प्यार से इक फूल, कर देना क्षमा भूल कर भी गर हुई हो भूल, कर देना क्षमा बात जो के बन गई इतिहास वो रहने भी दो क्यों उसे हम व्यर्थ में दें तूल, कर देना क्षमा भूल जाना चाहिए गलती कोई स्वीकार ले झाड़ देना तुम समझ कर धूल, कर देना क्षमा क्यों भला हम गाँठ बाँधे ही रहें इक बात को है यही तो इक

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सामयिक परिवेश में दो कविताएं

24 सितम्बर 2016
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1 अगर प्यार दिखलाए कोई अपना प्यार जरूरी है मगर करे शैतानी तो उसका संहार जरूरी है चुप रहना कायरता होगी, शत्रु के उत्पात पर फ़ौरन बढ़ कर उस पर अपना तीखा वार ज़रूरी है नालायक लोगों से बढ़ कर निबटें यह भी वाज़िब है टुच्चे लोग कहाँ सुधरेंगे, जम कर मार ज़रूरी है बहुत हो गई अमन की बातें अगर चैन से सोना है दुश्म

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एक गीत सैनिकों के लिए

26 अक्टूबर 2016
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( देश में अच्छा वातावरण बन रहा है कि जहां कहीं सैनिक दिखें, उन के प्रति हम सम्मान दिखाएं। दिवाली पर उन्हें सन्देश भी भेजें। यह कार्य शुरू से होना था, पर जब जागें, तभी सवेरा. एक गीत मेरा भी समर्पित उनको । ये गीत उन तक पहुंचेगा, यही विश्वास है।) सीमा पर जो डटे हुए हैं, इस धरती के अदभुत लाल। य

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ग़ज़ल

18 जनवरी 2017
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खतरा तनिक उठाना होगा सच का साथ निभाना होगाअगर किया है दिल से वादा कर के उसे दिखाना होगाआ भी जाओ अब तो साथी कितना रोज बहाना होगा राजनीति का खेल अनोखाठगना और ठगाना होगामुफ्तखोर क्यों बनना साथी मेहनत करके पान

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ग़ज़ल

15 फरवरी 2017
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 स्वार्थ का संसार बन के रह गया है प्यार इक व्यापर बन के रह गया है ज़ेब जब तक गर्म है तो प्यार है जी बस यही इक सार बन के रह गया है प्यार पूजा से नहीं कम किन्तु अब वो जिस्म का बाजार बन के रह गया है वायदे औ छल छिपे दिखते नहीं वे प्यार क्या हथियार बन के रह गया है प्यार क्या ह

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ईद मुबारक

26 जून 2017
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 खुशहाल रहे आपका दर ईद मुबारक "कहती है ये खुशियों की सहर ईद मुबारक"हिद्दत सही रमजान में दय्यान के लिए महका रहा है तुमको इतर ईद मुबारक (दय्यान - स्वर्ग का वो दरवाज़ा जो रोजेदारों के लिए खुलता है) तुमको नहीं देखा है ज़माने से दोस्तो इस बार तो आना मेरे घर ईद मुबारक अल्लाह ने बख्शी है हमें एक ये नेमत मि

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ग़ज़ल

20 जुलाई 2019
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फूलों की बात कीजिए कांटे निकाल करदो शब्द भी कहें पर उनको संभाल करअपनी ही राह पर चलें ये काम है सहीक्या मिल सका किसी की पगड़ी उछाल करअपनी लकीर को यहाँ लम्बी रखो सदाओ रे मनुज हमेशा तू ये कमाल करयह ज़िन्दगी हमें कब चल देगी छोड़ करसच्चाई है यही तू थोडा खयाल करहो काम न अच्छा तो पूछे नही कोईहोता है किसका ना

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लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की जयंती (23 जुलाई) पर विशेष

23 जुलाई 2019
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पत्रकारिता के माथे का वह पवित्र 'तिलक'गिरीश पंकजलोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को साधारण लोग इसलिए याद करते हैं कि उन्होंने गणेश उत्सव की शुरुआत की थी । यह उनका छोटा- सा परिचय है। तिलक जी तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की ऐसी अद्भुत कड़ी हैं, जिसके बिना हम उस इतिहास की कल्पना ही नहीं कर सकते। तिलकज

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गीत/ कश्मीर हमारा है.

5 अगस्त 2019
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(कश्मीर से धारा 370 हटाने का संकल्प संसद में पेश होने के बाद उम्मीद जगी है कि अलगाववादी ताकतें खत्म होंगी। कश्मीर में अन्य भारतीय भी बस सकेंगे।) कश्मीर हमारा था, अब तो कश्मीर हमारा है।जिसमें हो विजयीभाव भला, वो कब क्यूँ हारा है।।बहुत दिनों तक बंदी था, यह स्वर्ग हुआ आजाद।नये दौर के इस भारत को लोग क

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