पहले वह केवल बैरागी था। प्रभु भक्ति में रमा हुआ। उसके अनेक नाम थे। कश्मीर के राजौरी का एक राजपूत था वह। बचपन का नाम था लक्ष्मण देव। कहते हैं कि एक बार किशोरावस्था में उसने हिरनी की शिकार किया। उस हिरनी के पेट में दो शावक (बच्चे) थे जो उसके सामने मर गए उन्हें देख कर लक्ष्मणदेव के मन में बैराग-भाव पनप गया। वह एक बैरागी का शिष्य बना, तो उसका नाम हो गया माधोदास। पर मन कहीं रमा नहीं। घर छोड़ दिया। कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में जा कर बस गया। एक आश्रम बना कर रहने लगा। वह तंत्र-साधना करके वह कुछ चमत्कार भी किया करता था। एक बार सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंघ जी उसके डेरे पर आए और उसके पलंग पर बैठ गए। माधोदास ने मंत्र की सहायता से पलंग को हिलाने की कोशिश की पर वह विफल हो गया। वह समझ गया कि सामने जो व्यक्तित्व है उस पर उसका जोर नहीं चल सकता। उसने उनका परिचय जानना चाहा। माधोदास को जैसे ही पता चला कि ये गुरु गोविंद सिंघ जी हैं तो उसने माफी मांग ली। गुरुजी ने उससे कहा- तुम्हें देशसेवा का व्रत लेना चाहिए। माधोदास ने कहा कि मुझे साधना करनी है, भक्ति करनी है। इस पर गुरुजी ने कहा- ''क्या होगा तुम्हारी साधना से? देश गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ है। गायें कट रही हैं। मंदिरों को नष्ट किया जा रहा है। हिंदू और उनकी माँ-बहनों की अस्मत लुट रही हैं और तुम तपस्या की बात कर रहे हो? यह समय तप का नहीं, युद्ध का है। ये बैराग छोड़ो और बहादुर बन कर युद्ध करो। सूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेतु। अपने लोगों की अस्मिता को बचाओ।'' गुरुजी की बात सुन कर माधोदास गुरुजी के चरणों पर गिर कर बोला - ''तो फिर ठीक है। मुझे अपना बंदा बना लीजिए। आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगा।'' गुरु गोविंद सिंघजी प्रसन्न हुए और उसे अमृत चखा कर अपना शिष्य बना लिया और उसका नया नाम रखा 'गुरुबख्श सिंह' मगर वह अपने काम के कारण 'बंदा सिंघ बहादुर' नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरुजी ने उसे अपनी तलवार सौंप दी, फिर उसे पाँच तीर, पाँच सिख, नगाड़ा और केसरिया झंडा भी दिया। गुरुजी ने सिखों के नाम एक हुकुमनामा (फरमान) जारी किया जिसमें लिखा था कि हर कोई बंदा सिंह बहादुर को सहयोग करें। और इतिहास गवाह है कि बंदा सिंह बहादुर अपने बैरागी जीवन को त्याग कर गुरु गोविंद सिंघ जी का समर्पित योद्धा बन गया। मुगलों के खिलाफ संगठित रूप से युद्ध करने वाले सिख कौम के पहले जरनैल के रूप में भी हम बंदा सिंघ बहादुर को याद करते हैं। हम उसे मुगलों के विरुद्ध आजादी की लड़ाई का पहला नायक भी कह सकते हैं।
बंदा सिंघ बहादुर को जब पता चला कि मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंघ जी के सात और नौ वर्ष के साहेबजादों की हत्या कर दी है तो वह विचलित हो गया। उसने कसम खाई और हत्यारों का चुन-चुन कर संहार भी किया। सरहिंद जा कर बंदा बहादुर ने उस वजीद खान को मौत के घाट उतारा जिसने दो साहेबजादों की जान ली थी। दीवान सुच्चानंद को भी बंदा सिंघ बहादुर ने जान से मार डाला जो वजीद खान को गुरु गोबिन्द सिंघजी के खिलाफ उकसाने का काम करता था। दीवान टोडरमल और मोती मेहरा के हत्यारों को भी बंदा ने खोज कर मौत के घाट उतारा। टोडरमल ने गुरु गोविंद सिंघ जी के दो बच्चों और उनकी माता गुजरीजी का अंतिम संस्कार किया था। सोने की मोहरे बिछा कर। मोती मेहरा वो शख्स था जो मुगलों की कैद में रहने वाले साहेबजादों के लिए छिपा कर दूध ले जाया करता था। गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाने के कारण ही टोडरमल और मोती मेहरा की हत्या कर दी गई तो बंदा बहादुर ने भी इन पापियों की जान ले उन्हें दंडित किया। उसे इस बात का संतोष था कि उसने अपने गुरु गोबिंद सिंघ जी के परिवार के हत्यारों को सबक सिखाया।
बन्दा सिंघ बहादुर का जन्म 1670 में हुआ था। उसकी मृत्यु 1716 में हुई। कुल छियालीस साल ही वह जीवित रहा पर इस दौरान उसने बहादुरी के जो कीर्तिमान स्थापित किए उसकी मिसाल कम ही मिलती है। 1706 में बंदा बहादुर ने मुगलों पर ऐसा आक्रमण किया कि वे टिक नहीं पाए। 1708 ई. में जब गुरु गोबिंद सिंघ जी का महाप्रयाण हुआ तो उनके जाने के बाद बंदा सिंह बहादुर ने ही सिखों का नेतृत्व किया। उसने सिख साम्राज्य की स्थापना की। बंदा बहादुर ने मुगलों के इस भ्रम को तोड़ कर रख दिया कि वे अजेय हैं। 1699 में खालसा पंथ की स्थापना हुई थी और 1709 में सरहिंद में सिख राज्य यानी खालसा राज की स्थापना हुई। बंदा सिंघ बहादुर गुरु गोबिंद सिंघ जी के आदेश पर पंजाब आया और मुगलों की ईंट-से ईंट बजा दी। मुगल सैनिक भाग खड़े हुए। बंदा सिंह ने सरहिंद में गुरुजी का दिया गया केसरिया झंडा लहरा दिया। उसने मुखीशपुर में लौहगढ़ नामक एक किला भी बनवाया। एक राजा के रूप में उसने अपना काम शुरु किया। बंदा सिंघ ने छह साल तक राज किया। और देश का प्रथम राजा बन कर अपने कर्म से साबित कर दिया कि सच्चा जनसेवक कैसा होता है। उसने अधर्म का नाश करके धर्म की सत्ता स्थापित की। मुगलों की क्रूर सत्ता को अपदस्थ करके उसने लोकसत्ता की स्थापना करके सबका भय खत्म कर दिया। उसने गुरुनानक-गुरु गोबिंद सिंघजी की याद में उनके चित्र वाले सोने के सिक्के चलाए। सबसे बड़ा काम जो बंदा सिंह बहादुर ने किया वो था किसानों को जमीन का मालिक बनायाा। बंदा बहादुर ने गुरु गोबिंद सिंघजी के नक्शेकदम पर चल कर लोक मंगल के अनेक काम किए। वह उदारवादी था। उसमें साम्प्रदायिक सद्भावना भी थी। इसका प्रमाण यह है कि उसकी सेना में पाँच हजार मुसलमान भी थे। उन्हें नमाज और खुतबा पढऩे की पूरी छूट थी। उसने कोई मस्जिद नहीं तोड़ी। वह चाहता तो ऐसा कर सकता था, पर वह एक धर्मी राजा था. गुरु गोविंदसिंघ जी का भक्त होने के कारण भी उसने ऐसा नहीं किया।
बंदा सिंघ बहादुर के राज में सुख-शांति थी। गुरु गोबिंद सिंघ जी के नाम की सोने की मुहरें चल ही रही थीं। प्रजा भी खुशहाल थी। मगर दिल्ली में उस वक्त बैठा मुगल बादशाह अपनी पराजय से विचलित था। वह मौका देख रहा था कि कैसे बंदा बहादुर से सत्ता छीनी जाए। एक बार फिर दिल्ली से मुगल सम्राट बहादुर शाह प्रथम ने पंजाब कूच किया। 1715 में मुगलों ने गुरदास - नंगल की गढ़ी पर धावा बोल दिया। उस वक्त बंदा बहादुर उसी किले में था। किला चारों तरफ से घेर लिया गया। कोई भी बाहर नहीं निकल सकता था। जब अंदर खाने-पीने का सामान खत्म हो गया तो मजबूरी में बंदा बहादुर समेत 794 लोगों को सामने आना पड़ा। बंदा बहादुर को अपनी नहीं, अपने साथियों की चिंता थी। सबके सब गिरफ्तार हुए और उन्हें दिल्ली ले जाया गया। बंदा सिंघ जंजीरों से बांधा गया, फिर पिंजरे में कैद करके रखा गया. वहाँ बादशाह फर्रुखसियर ने बंदा सिंघ बहादुर से कहा, '' इस्लाम कबूल कर लो, हम तुझे छोड़ देंगे।'' पर बंदा ने इंकार कर दिया। तब उसके सामने उसके छह वर्षीय पुत्र अजय को मार डाला गया। फर्रुखसियर ने कहा- ''तुम्हे अपने बेटे की जान लेनी है'', इस पर बंदा सिंह बहादुर ने कहा, ''मैं तो तेरे बच्चे की भी जान न लूँ। मैं मानवता को कलंकित नहीं कर सकता।'' बादशाह भड़क गया। उसके बाद तो उसकी क्रूरता का चरम देखने को मिला। बंदा के पुत्र को मार डाला गया और उसका कलेजा निकाल कर बंदा के मुँह में ठूँसने की कोशिश की गई। तब भी बंदा विचलित न हुआ. उस ने दहाड़ते हुए कहा था, ''धर्म की राह पर गुरु गोबिंद सिंघ जी के चार बच्चे कुरबान हुए। मेरा एक बच्चा भी शहीद हो गया, तो मेरा अहोभाग्य।'' फर्रुखसियर के आदेश पर प्रतिदिन सौ-सौ लोगों को चांदनी चौक के पास मैदान में क्रूरता के साथ मौत के घाट उतारा जाने लगा। अंत में बंदा बहादुर की बारी आई। 16 जून 1716 को भूलना मुश्किल है जब पहले बंदा बहादुर की आँखें फोड़ दी गईं । उसे गर्म सलाखों से पीटा गया। जमूर (चिमटा) गर्म करके उसके शरीर को नोंचा गया और अंत में उसे हाथी से कुचलवा कर उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। गुरु गोबिंद सिंघजी के इस महान बंदा बहादुरी के साथ क्रूरता का सामना करता रहा पर अपने धर्म से न डिगा। बंदा सिंह बहादुर की शहादत को तीन सौ साल हो चुके हैं। उनकी महान शहादत की त्रिशताब्दी की स्मृति को नमन करने के लिए दिल्ली में सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के तत्वावधान में तीन दिवसीय समारोह आयोजित किया। आगामी 3 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा आयोजन होगा, जिसमें देश-विदेश के लाखों सिख शामिल हो कर अपने पहले जरनैल बंदा सिंह बहादुर के बलिदान को याद करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी में शरीक होंगे।कुतुबमीनार के पास एक पार्क में उनकी एक प्रतिमा भी लगाई जाएगी । आज भारत की सीमा पर आंतकी गतिविधियाँ होती रहती हैं। हमारे सैनिकों के सिर काट कर दुश्मन ले जाता है। तब हम सोचते हैं काश, हमारे बीच भी बंदा सिंह बहादुर जैसे कुछ जांबाज होने चाहिए जो दुश्मनों से बदला ले सकें। बंदा सिंह बहादुर ने गुरुगोबिंद सिंघ जी के साथ हुई क्रूरता का बदला लिया और दीन के लिए लड़ते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
सदियों में होता है कोई बंदा सिंह बैरागी।
जिसे बहादुर भी कहते हैं,यश गाते अनुरागी।।
दशमेश जी के कहने पर, धारा सिक्खी बाना।
बदला लूँगा मुगलों से मैं, उसने मन में ठाना।
चुन-चुन कर मारा उन सबको जिसने दुख पहुँचाया।
राज खालसा स्थापित कर ध्वज अपना फहराया।
कृषकों को बांटी जमीन और समता का संदेश दिया।
अपने गुरु के पथ चिन्हों पर चलने का ही काम किया।
धर्म से अपने डिगा नहीं जो दे दी हँस कर जान।
कभी नहीं भूलेगी दुनिया तेरा वह बलिदान।
धन्य-धन्य ओ बैरागी बंदे तू बना बहादर
मरते दम तक ओढ़े रक्खी सिख-आन की चादर।
सचमुच तू बंदा था प्यारा, था कितना बड़भागी।
सदियों में होता है कोई बंदा सिंह बैरागी।।
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