ई जो नवा ज़माना है न साहेब, ई तो सचमुच 'ई'-मनुष्य का ही है.बोले तो, 'ई-मेल' का है। क्या 'मेल' और क्या 'फी-मेल', हर कोई इसी से खेल रहा है। हर तरफ 'ई' है। 'ई-बैंकिंग', 'ई-मार्केटिंग', 'ई-गवर्नेंस', 'ई-लूट', 'ई-ठगी', 'ई- लव', 'ई-रोमांस' आदि-आदि।
कुछ ' बुड़बक लोग हमसे पूछते हैं, ''ई' का है भाई ?'' हम कहते हैं- ''ई ऊ है, जिसके बगैर अब आत्मा को मुक्ति नहीं मिल सकती।''
एक दिन की बात है, मुझे एक 'ई-मनुष्य' मिला। मॉल में मिला। बाजार में सामान्य मनुष्य मिलते है, मगर ई -मनुष्य टाइप के लोग आजकल मॉल में ही पाए जाते हैं. मनुष्य तो बहुतेरे देखे थे, मगर यह ई-मनुष्य था। वह बेहद गंभीर था। उसके चेहरे के भयंकर तनाव को देख कर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उसे गुदगुदाते हुए कहा- ''गिलीगिली, गिलीगिली।'' फिर भी वो हँसा नहीं। जबकि गुदगुदी कर दो तो पत्थर भी हँस पड़े। वह नहीं हँसा क्योंकि वह अकड़धारी ई-मनुष्य था। अपने यहाँ कुछ लोग खद्दरधारी होते हैं, कुछ अकड़धारी होते हैं। कुछ चक्करधारी होते हैं। और कुछ केवल लल्लूप्रसाद गिरधारी होते हैं। लेकिन यह ई- मनुष्य था।
मैंने कहा, ''भाई मेरे, तुम मनुष्य जैसे लगते हो, थोड़ा तो मुसकराओ। क्योंकि केवल इंसान ही हँस सकता है, कोई पशु नहीं। इसलिए हंसी को भीतर से कुछ 'पुश' करो या 'पुल' करो, , बाहर आ जाएगी ''
उसने चट् से कहा- ''तुमने मुझे पहचाना नहीं। मैं ई-मनुष्य हूँ। आजकल मैं एकदम नये लुक में हूँ। क्योंकि फेसबुक हूँ। मैं केवल यहीं हँसता हूँ। या तो 'फेसबुक' में, या फिर 'व्हाट्सऐप' में . वैसे तुम्हारी जानकारी कच्ची है। पशु भी हँस सकता हूँ। लकड़बग्घे को भूल गए? वह भी हँसता है।''
मैंने हँसते हुए कहा - ''लेकिन आप लकड़बग्घे नहीं हैं।''
वह कुछ बोला नहीं, मोबाइल पर ही नज़रें जमाए रहा।
मैंने गौर से देखा. उसका चेहरा पहचानने की कोशिश की। याद आया, अरे हाँ, उसने अपनी फेसबुक-वॉल पर किसी के हँसने वाली तस्वीर चस्पा की थी।
मैंने कहा- ''पिछले दिनों आपकी वॉल पर एक चित्र देखा था, जो हँस रहा था।''
वह कड़क स्वर में बोला- ''हम खुद नहीं हँसते, हमारे चित्र हँसते हैं। हम खुद नहीं रोते, हमारे चित्र रोते हैं। हँसना-रोना भले लोगों का काम नहीं।''
मुझे याद आया, उसने सामाजिक परिवर्तन के लिए लोगों को आगे आने वाली एक पोस्ट लगाई थी। मैंने कहा, ''आप ने कमाल कर दिया। आप दूसरों को सामाजिक कार्यों के लिए प्रेरित करते हैं। आपने भी अनके सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया होगा।''
वे गंभीर हो कर बोले- ''हम खुद कुछ नहीं करते-कुराते, केवल बातें करते हैं। क्योंकि हम ई-मनुष्य हैं।''
मैंने चौंकते हुए पूछा- ''तो क्या ई- मनुष्य कुछ नहीं करते?''
अब उसके चेहरे पर हँसी जैसी कोई चीज दिखी। बमुश्किल कुछ सेकेंड।
वह बोला- ''ऐसी बात नहीं। कभी-कभी कुछ-कुछ कर लेते हैं। कभी-कभी कुछ-कुछ होता भी है। लेकिन अक्सर जो कुछ भी होता है, वो फेसबुक में ही होता है। या फिर 'इनबॉक्स' में तो 'बहुतइ' कुछ होता है. हमारा असली चेहरा वही नज़र आता है. हमारी पोस्ट से बिलकुल अलग, क्योंकि हम ई मनुष्य हैं।''
''ये इन बॉक्स का क्या चक्कर है?''
वे बोले- '' आप फेसबुक में नहीं हैं न, तो का जाने कि इनबॉक्स का बला है. चलो, बताए देते हैं? इन बॉक्स में लोग एक-दुसरे से बातचीत करते हैं. जैसे मोबाइल में एसएमएस होता है, वही है। हम फेसबुक में पोस्ट करते हैं कि मनुष्य पतित हो रहा है, नैतिक मूल्य ख़त्म होते जा रहे है. हाय-हाय, कितना पतन हो रहा है.'' हमारी बात पढ़ कर लोग उसे ''लाइक' करते हैं, कुछ अपने विचार भी देते हैं। अगर किसी किसी लड़की ने अपने विचार दिए तो हम फ़ौरन उससे 'इन बॉक्स' में जा कर संपर्क करते हैं. लड़की पर अपना प्रभाव जमाने के बाद 'चलो इश्क लड़ाएँ' वाला गीत याद करके उससे मामला सेट करने की कोशिश करते हैं। लड़की हमारे जैसे ही हुई तो सेट हो जाती है, वर्ना हमारी मानसिकता समझ कर कहती है ''ओए, मजनू की औलाद, दो जूते मारूंगी'' हम घबरा कर उसे फ़ौरन अन्फ्रेंड कर देते हैं और फेसबुक में लिखते हैं, ''ज़माना खराब है साहेब, अभी-अभी एक कन्या हमसे बदतमीज़ी कर रही थी, हमने उसे अपनी मित्रसूची से निकाल बाहर किया है.''
मुझे यह देख कर 'भयंकर' अच्छा लगा कि इ मनुष्य हो कर भी वो सच बोल रहा था. ऐसा बहुत काम होता है.मगर पता नहीं क्यों उसकी आत्मा उस वक्त जगी हुई थी. ई मनुष्य ने अपनी बात जारी रखी, ''हमारा अपना निठल्ला-समूह है, जो कुछ भी नहीं करता। मगर लगेगा कि बहुत कुछ करता है। फेसबुक देख लो तो लगता है हम लोग सीधे क्रांति के लिए ही जन्में हैं। हम सब ई-मनुष्य हैं। नई प्रजाति हों जैसे। हम धरती को धन्य करने के लिए अवतरित हुए हैं। जो कुछ करना होता है फेसबुक में ही करते हैं। हाँ, कभी -कभार संडे को टाइम निकालते हैं क्योंकि इस दिन रविवार होता है न। ई- मनुष्य फेसबुक, ट्विटर वगैरह में इतना कुछ कर लेता है कि बाहर की दुनिया के लायक नहीं रह जाता। जब घर बैठे ही क्रांति हो रही है, तो कोई बाहर क्यों जाएँ, डंडे खाने? इसलिए हम घरघुस्सू, घरजीवी है। फेसबुक में ही लोगों को नाश्ता करवा देते हैं। घर-आँगन की सैर करा देते हैं। भूल कर भी किसी को घर नहीं बुलाते। अगर कोई अचानक आ जाए तो बगले झाँकने लगते हैं। कितनी जल्दी वो फूट ले, इसके सॉलिड उपाय करते हैं।''
''इस पुनीत कार्य हेतु कैसे हथकंडे अपनाते हैं? कुछ ज्ञान बढ़ाएँ। कुछ टिप्स दे दें।''
मेरे आग्रह को सुनकर वे मुझे धन्य करने के भाव से बोले- ''जैसे ही कोई अनचाहा मेहमान आ जाता है, हम लोग जमहाई लेने लगते हैं। बार-बार घड़ी की ओर देखते हैं। अचानक पत्नी सामने आ कर खड़ी हो जाती है, तो मैं कहता हूँ, बस, अभी चलते हैं। फिर मेहमान से कहता हूँ कि हम लोग निकलने वाले ही थे कि आप आ गए। खैर, कोई बात नहीं। कुछ देर बाद निकल लेंगे। उसी वक्त मोबाइल पर भी कहता हूँ, बस, अभी निकल ही रहे हैं। कोई भयानक बेशरम हो तो वह हमारा संकेत समझ नहीं पाता, मगर जो ज्ञानी होता है, वो फौरन निकल लेता है। फिर हम लोग अकेले में खूब हँसते हैं। ये हमारा पुराना हथकंडा है, मगर ई-मनुष्य होने के बाद हम लोगों ने इसे आत्मसात कर लिया है। हम लोग अकेले मगन रहते हैं। सबको दुनिया की सैर करवा देता हैं। पानी पिला देते हैं। जूस पिला देते हैं। बगीचे की सैर करा देते हैं। महपुरुषों के वचन पढ़ा देते हैं। और क्या कर सकते हैं? ई- मनुष्य की अपनी सीमा होती है।''
मैंने ई मनुष्य को प्रणाम किया। वह आगे बढ़ गया।
कुछ दिन बाद वही इनबॉक्स वाला ई-मनुष्य फिर मिला। इस बार कुछ-कुछ उदास नज़र आ रहा था। चेहरे की अकड़ गायब थी।
मैंने पूछा- ''क्या हुआ? बदले-बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं?''
''कम्प्यूटर और लेपटॉप पर अधिक बैठने के कारण कमर दर्द का मरीज हो गया हूँ। पिछले दिनों बीमार भी पड़ गया था, तो 'गूगल' में सर्च करके अपना इलाज शुरू कर दिया था। इस चक्कर में घनचक्कर बन कर और अधिक बीमार पड़ गया। लेने के देने पड़ गए। दवाइयाँ चल रही हैं। इकलौती पत्नी ने भी हड़का दिया है कि या तो मेरी ये इंटरनेट रहेगा, या मैं रहूँगी। ये इंटरनेट नहीं, ई-सौत है। फेसबुक वालों ने भी हड़का दिया है कि इनबॉक्स में ऐसी-वैसी हरकतें करोगे तो ठीक नहीं होगा. इसलिए हम अभी विश्राम कर रहे हैं.''
''मतबल यह कि आप अब कुछ-कुछ मनुष्य-से होने लगे हैं।''
मेरी बात सुनकर वे सहसा हँस पड़े- ''ई-मनुष्य होने के चक्कर में मैं अमानुष टाइप का होता जा रहा था। एक दिन आत्मज्ञान हुआ और अब मैं मनुष्य होने की कोशिश में हूँ। आजकल बैलेंस बना कर चल रहा हूँ। अब 'ई- मनुष्य' भी हूँ और 'बी- मनुष्य' भी।''
'ये 'बी-मनुष्य' क्या बला है?'' मैंने पूछा।
'बी-मनुष्य' यानी बिंदास मनुष्य।'' इतना कह कर ई-मनुष्य हँसा और फिर टाटा-टाटा बाय-बाय करते अपनी राह चला गया।