प्रबलः कर्मसिद्धान्तः उक्ति जीवन में कर्म के सिद्धान्त को दर्षाती है कि जीव जगत में कर्म का सिद्धान्त अत्यन्त ही प्रबल है। आज हम इस सिद्धान्त को वास्तविक धरा से जुड़ी वैज्ञानिक दृश्टि से समझेंगे कि किस प्रकार कर्म का सिद्धान्त हमारे जीवन में स्पश्ट रूप से दिखाई देता है। कर्म की क्रिया वस्तुतः प्रत्येक जीव पर लागू होती है। यदि हम स्वयं को दार्षनिक दृश्टि से पृथक होकर मौलिक रूप से कर्म की प्रवृत्ति को समझें तो हम स्वयं ही बड़ी सरलतापूर्वक इस निश्कर्श पर पहुंच सकते हैं कि वास्तव में कर्म के बिना किसी भी जीव-जन्तु का जीवित रहना भी असम्भव है। जीव के उत्पन्न होने के साथ ही उसके कर्म का चक्र चलना प्रारम्भ हो जाता है, जो उसके मृत्यु तक अनवरत चलता ही रहता है। यदि देखा जाये तो भाग्य की अवधारणा दार्षनिक और धार्मिक मात्र है। भाग्य से हम यही अर्थ कर सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु, जीव-जन्तु अपने जीवन में क्या-क्या करेगा और उसके साथ क्या-क्या होगा, यह सब पहले से ही सुनिष्चित है। यदि दूसरे षब्दों में कहें तो प्रत्येक जीव को जो मिलना है, वह अवष्य ही मिलेगा, जो होना है, वह अवष्य ही होकर रहेगा। कई व्यक्ति हमें ऐसे देखने को मिलते हैं जो अत्यन्त ही कम परिश्रम करते हैं लेकिन उन्हें कम परिश्रम में ही अत्यन्त सफलता मिल जाती है, जीवन की समस्त सुख-सुविधायें उन्हें बड़ी ही आसानी से मिल जाती हैं। इसके विपरीत अनेकों लोग जीवन भर कड़ी मेहनत करते हैं, फिर भी वह उतनी सफलता प्राप्त नहीं कर पाते और जीवन में अनेकों कठिनाईयों और परेषानियों का सामना करते हैं। इन परिस्थितियों को अक्सर हम भाग्य का नाम देते हैं। आज हम इस विशय पर बात करेंगे कि वास्तव में हमारे जीवन में कर्म की क्या उपयोगिता है और भाग्य जैसे षब्दों को जन्म देने का वास्तव में दार्षनिकों का क्या कारण हो सकता है?
जीवन के नियम समान हैं - कर्म ही जीवन है।
सृश्टि की उत्पत्ति के उपरान्त सर्वप्रथम समुद्र में जीवों की उत्पत्ति हुई, उसके बाद कीट-पतंगे, पषु-पक्षियों और वनस्पतियों का जन्म हुआ। प्रकृति ने मनुश्य का जन्म भी अन्य जीव-जन्तुओं की भांति किया। जिसमें मनुश्यों में अन्य जीवों की अपेक्षा एकमात्र अंतर था और वह थी बुद्धिमता। मनुश्य में अन्य जीव-जन्तुओं की अपेक्षा सर्वाधिक बुद्धिमता थी जिसके कारण वह अन्य सभी को अपने अधीन रखने में सक्षम हो सका। अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए मनुश्य कर्म करते हुए ही आज इस स्थिति तक पहुंच सका है जिसके कारण आज हम अनेकों वैज्ञानिक सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। हजारों किलोमीटर की दूरी को विज्ञान ने (अर्थात मानव के कर्म) इतना छोटा बना दिया कि वह जिस दूरी को पार करने में कभी सालों लगाता था अब मात्र कुछ ही घण्टों में हवाई जहाज के माध्यम से पूर्ण कर लेता है। इंटरनेट, मोबाईल की सहायता से वह दुनियां के किसी भी कोने में कुछ सेकेण्डों में अपना संदेष भेज सकता है। यह सब मनुश्य के कार्यों की ही देन है।
जीव जगत में मनुश्य अपने जीवों से तनिक भी भिन्न नहीं, जो नियम पषु-पक्षियों के जीवन पर लागू होते हैं वही मनुश्य पर भी लागू होते हैं, मात्र अन्तर यह है कि मनुश्य ने मात्र अपनी स्वार्थपूर्ति के कारण समस्त जीव जगत को अपने अधीन मान लिया और सर्वाधिक बुद्धिमान होने के कारण, अच्छे और बुरे की समझ होने के कारण स्वयं की दृश्टि से गिरने से बचाव के लिए भाग्य जैसे षब्दों का निर्माण हुआ। भाग्य षब्द के कारण ही एक व्यक्ति दूसरे का षोशण करने में समर्थ हुआ। कर्म विहिन वस्तु मात्र कोई बेजान पत्थर ही हो सकती है, जिसमें न कोई जीवन है और न ही जीवन पूर्ति करने हेतु कोई आकांक्षा।
भाग्य क्या है और इसे कैसे बदला जा सकता है?
जैसा कि अभी हम इस बारे में बात कर ही चुके हैं कि भाग्य से हम मात्र यह अर्थ कर सकते हैं कि सबकुछ पहले से ही सुनिष्चित है, जो जिसे जब मिलना है, तब मिलेगा। जो होना है, वो होकर रहेगा। लेकिन भाग्य को लेकर इस सिद्धान्त के विपरित अनेकों प्रष्न खड़े हो जाते हैं जिनका उत्तर भाग्यवादियों को देना कठिन हो जाता है क्योंकि सत्य दृष्य है, उसे किसी साक्ष्य की आवष्यकता नहीं किन्तु भाग्य के मामले में ऐसा नहीं है। इसे हम कुछ उदाहरणों के द्वारा समझ सकते हैं। यदि सबकुछ पूर्व निष्चित है तो प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु भी पूर्व निष्चित है तो क्या आत्महत्या करने वाले या किसी की हत्या करने वाले भाग्य के अधीन बताकर स्वयं को निर्दोश कर सकते हैं? प्रत्येक दिन समाचार पत्रों में अनेकों प्रकार के अपराध पढ़ने को मिलते हैं, क्या वह लोग जिनके साथ अन्याय हुआ, वह सब उनके भाग्य का दोश था या किसी के द्वारा किये गये कर्मों का?
यहां हमें स्पश्ट रूप से प्रत्येक स्थान पर किसी न किसी के द्वारा किये गये कर्म ही दिखाई देते हैं।
दूसरा प्रष्न यह आता है कि क्या भाग्य को बदला जा सकता है?
इसका उत्तर है, जी हां, बिल्कुल बदला जा सकता है। भाग्य कोई पूर्वनियोजित लेखा-जोखा न होकर, अन्य व्यक्तियों द्वारा या आपके स्वयं किए गए कर्मों द्वारा जनित परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि कोई व्यक्ति योग्यता होते हुए भी किसी कार्य के पूर्ण न होने पर भाग्य को कोसता है, तो उसे एक बार उक्त कार्य से संबंधित व्यक्ति, स्थान और परिस्थितियों को बदलकर अवष्य देख लेना चाहिए। भाग्य, बदलते देर नहीं लगेगी। अनेकों स्थानों पर व्यक्ति को स्वयं के अंदर भी बदलाव लाने पड़ सकते हैं क्योंकि ऐसा भी होता है कि व्यक्ति के स्वयं का व्यवहार और आदतें उसके दुर्भाग्य का सबसे बड़ा कारण हो, जो अक्सर कई लोगों के साथ होता है।
कोई व्यक्ति जन्म से धनी होता है, तो कोई निर्धन। किसी के पास आसानी के अधिक धन आ जाता है और कोई कड़ी मेहनत करके भी दो समय का भोजन भी नहीं कर पाता। इसका सरलतम उत्तर मात्र यही है कि धन कमाना भी एक कला है जिसे कुछ लोग जानते हैं और उसका प्रयोग करके धनी होते हैं और अन्य उनके अंतर्गत कार्य करते-करते अपना भरण पोशण करते रहते हैं और मध्यमवर्गीय बने रहते हैं। कुछ गरीबी की मार झेलते हुए दम तोड़ देते हैं, जिसका सबसे बड़ा कारण उनका भाग्य नहीं, अपितु अषिक्षा एवं सामाजिक व्यवस्था का सही न होना है।
प्रकृति से सीखना आवष्यक है।
प्रकृति और उसमें रहने वाले अनेकों जीव-जन्तु मनुश्य के लिए सबसे बड़े षिक्षक हैं। जिनसे मानव बहुत कुछ सीख सकता है। मनुश्य के अलावा कोई भी जीव-जन्तु को भाग्य का ज्ञान नहीं होता क्योंकि एक तो उनके पास इतनी तर्क बुद्धि नहीं होती कि वह कोई भी काल्पनिक धारणाओं को कल्पित कर सकें। वह प्रायः मौलिक जगत से ही संबंध रखते हैं। जब उन्हें भूख लगती है, तब वह खाते हैं। जब प्यास लगती है, तब जल पीते हैं। नींद के समय नींद किन्तु सबसे बड़ी बात यह है कि इन सबको प्राप्त करने के लिए भी उन्हें भागदौड़ अर्थात कर्म करना ही पड़ता है। षिकारी षिकार करने के लिए दौड़ता है और षिकार अपने जान बचाने के लिए भागता है। इनमें से यदि कोई भी भाग्य के भरोसे बैठ जाए तो वह निष्चित रूप से अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता। यही स्थिति भी मनुश्य की भी है किन्तु उसका जो सबसे बड़ा मित्र हो सकता था, अनेकों स्थान पर उसने उसका भी गलत प्रयोग कर स्वयं का षत्रु बना लिया जिसके कारण आज धनी-निर्धन, छोटा-बड़ा, दलित-स्वर्ण इत्यादि वर्ग बनाकर एक दूसरे के षत्रु बन बैठे हैं और वह कुछ और नहीं, मात्र मानव बुद्धि ही तो है, जो ऐसी दोधारी तलवार है, जिससे किसी को बचाया भी जा सकता है या स्वयं को समाप्त भी किया जा सकता है।