हमें अति प्राचीन पूर्वजों से बहुत कुछ सीखना होगा।
एक समय ऐसा भी था जब मानव गुफाओं में बैठा पत्थरों से छोटे-मोटे औजारों का निर्माण करके ही खुष था। कोई अजनबी सा दिखने वाला चमकीला पत्थर भी उसे उत्साहित कर देता था। सूरज की रोषनी, जल की शीतलता, आग से प्राप्त होने वाली ऊष्मा और मात्र अपनी क्षुधा तृप्ति तक का भोजन उसे प्रसन्न रखने के लिए पर्याप्त था। कभी-कभी अचानक तेज बारिष और गरजने वाली बिजली उसे डरा देती थी। जहरीले सांप-बिच्छुओं के डंक, तेज दांत और धारदार नाखूनों व सींगों वाले बड़े जंगली जानवरों का डर भी उन्हें बना रहता था। सूखा, अकाल, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाएं भी उन्हें डराने के लिए पर्याप्त थी क्योंकि इन सभी कारणों से जीवन नष्ट होने का भय, समय पर भोजन-पानी न मिलना शामिल था। छोटे-छोटे अनेकों कबीलों में रहने वाला प्राचीन मानव के पास डरने के लिए बहुत कुछ था। जंगली पषुओं और प्राकृतिक आपदाओं से कहीं अधिक अपने ही जैसे दूसरे कबीले के ही मानव। जो सभी शक्ति के विस्तार हेतु एक-दूसरे को ही मार रहे थे। जिसके अनेकों कारण थे। जिसमें एक भाषा का न होना या अलग-अलग होना और शारीरिक रूप से भिन्नता इसका मुख्य कारण था। नस्लवाद की यह भावना मानव की आज की ही प्रवृत्ति नहीं है अपितु यह भी उसे अपने आदिपुरूषों से ही प्राप्त हुई है।
आज जैसे पष्चिमी देषों में गोरा-काला, यूरोपियन-एषियन-मंगोलियन इन सबमें अनेकों प्रकार के भेदभाव किये जाते हैं। वहीं दूसरी और पूरबी देष भी इन भेद भावों में कुछ कम नहीं हैं। यहां पर तो नस्लीय भेदभाव तो है ही और इसके साथ-साथ धार्मिक भेदभावों ने मनुष्य के प्रति होने वाले भावी नरसंहारों की ओर स्पष्ट संकेत अनेकों बार दे चुके हैं। यदि वर्तमान में हम अभी भी न चेते तो वह दिन दूर नहीं जब अनेकों लोग किसी जोम्बी की भांति अपने से अलग दिखने वाले को या तो मार देना चाहते होंगे या फिर अपने ही जैसा बना देना चाहते होंगे। जिसका प्रमाण हम वर्तमान में देख ही रहे हैं। वर्तमान समय का मानव भी किसी जिंदा लाष से कम तो नहीं है जिसे हम अच्छे शब्दों में जोम्बी कह सकते हैं। जिंदा लाष कहने का यहां मेरा तात्पर्य यह है कि उसकी सबसे बड़ी यही विषेषता होती है कि वह कभी कुछ नहीं सोचती और न अपनी किसी भी प्रकार से बुद्धि का प्रयोग करती है। वह मात्र चलती है और अन्य लोगों को हानि पहुंचाती है और औरों के साथ-साथ स्वयं भी समाप्त हो जाती है।
वर्तमान परिपेक्ष्य में यदि हम मानव जीवन की स्थिति देखें तो मानव जाति भी एक प्रकार की मानसिक कल्पनाओं के साथ बंधी हुई है। ऐसी कुछ कल्पनाएं जिनका कोई अस्तित्व नहीं लेकिन उन दिवास्वप्न के सुखद अहसास जो किसी नषे से कम नहीं, कभी कोई बाहर नहीं निकलना चाहता। क्योंकि वास्तविक धरातल कठोर अवष्य है लेकिन सुकून और निष्चिंतता से भरा हुआ। जहां प्रत्येक जीव की स्वयं की जिम्मेदारी स्वयं पर ही है। अपने वास्तविक स्वरूप में जीना ही प्रत्येक जीव के लिए सुख भी है और उसका हक भी। मनुष्य ने अपने दंभ के आगे कभी किसी जीव को कुछ नहीं समझा, प्रकृति को कुछ नहीं समझा। हद तो तब हो गई, जब उसने अपने ही जैसे दूसरे मनुष्य को भी कुछ नहीं समझा। मनुष्य की बुद्धि ऐसी दोधारी तलवार की तरह है जिससे चाहे वह बेढंगे पत्थर को गढ़कर सुन्दर मूर्ति का रूप दे सकता है या फिर फसाद कर लाखों जीवों का संहार करते हुए, स्वयं को भी मार सकता है।
मानव ने अपनी बुद्धि के द्वारा ज्ञान, विज्ञान, कला और संगीत सीखा लेकिन अपने ज्ञान का प्रयोग जितना अधिक अब तक मनुष्य को कर लेना चाहिए था वह उसने नहीं किया। ऐसा नहीं है कि वह कर नहीं सकता। उसकी बुद्धि इतना विकास कर चुकी है कि वह विज्ञान की सहायता से वह सब कुछ कर सकता है जो अभी तक आमजन के लिए मात्र स्वप्न है लेकिन वह फिर भी नहीं करता। कभी सोचा है क्यों? इसका उत्तर है, शक्ति का केन्द्रीयकरण।
शक्ति को कैसे केन्द्रीयकृत किया जाये, इसका सबसे अच्छा उदाहरण मनुष्य ही है। सभी जीवों में सबसे अधिक विकास मानव इसी कारण कर पाया क्योंकि वह शक्ति को केन्द्रीयकृत करना सीख गया। जो उसकी भाषा द्वारा संभव हो सका।
जैसा कि हम यह बात जान चुके हैं कि मानव में अपने बुद्धि के बल पर अनेकों कलाओं का विकास किया। लेकिन यदि हम मानव इतिहास में समय के उस दौर की ओर देखें जब मनुष्य छोटे-छोटे कबीलों के रूप में जंगलों में अपने ही जैसी अन्य प्रजातियों के साथ रहता था। जिन्हें आज हम होमो नियेन्डरथल, होमो सैपियन्स, होमो क्रोमैगनन इत्यादि नामों से जानते थे। वास्तव में सभी अलग-अलग मानव प्रजातियां थी जिनकी अलग-अलग शारिरिक और मानसिक क्षमताएं थी। उन सभी जातियों में जो वर्तमान समय में जीवित बची वह होमो सैपियन्स कहलाती है। इस प्रजाति में अन्य प्रजातियों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमता और अन्य क्षमताएं थी। जिस कारण यह अन्य जातियों को समाप्त करते हुए स्वयं सम्पूर्ण जंगल पर अधिकार करने में सक्षम हुई। उस समय मानव जंगल में रहता था, जिस कारण वह मात्र जंगल को ही सब कुछ समझता था। धन मात्र गाय, भैस, भेड़, बकरी, भूमि और मनुष्य इत्यादि हुआ करते थे यही शक्ति का मुख्य स्त्रोत था। अन्य जातियों को समाप्त करने के पष्चात भी होमो सैपियन्स के समक्ष फिर वही समस्या आ खड़ी हुई जो पहले थी किन्तु समस्या ने अब अपना स्वरूप बदल लिया था। पहले तो अलग प्रजाति के साथ अपनी दुनियां को बांटने का प्रष्न था, तब उसने उक्त प्रजातियों को समाप्त ही कर दिया किन्तु अब उसे अपनी ही प्रजाति के लोगों के साथ दुनियां में रहना था किन्तु उस समय भी छोटे-छोटे कबीलों में रहते हुए यह सब संभव न था जोकि बड़ी तेजी के साथ बढ़ रही थी।
मुख्यतः वनों में अन्य प्राणी भी छोटे-छोटे कबीलों में रहते हुए पाये जाते हैं जैसे शेर, हाथी, बंदर, भेड़िये, लक्कड़बग्गे, भैंसे, घोड़े इत्यादि किन्तु मानव इन सबकी अपेक्षा अधिक बुद्धिमान था क्योंकि उस समय तक मानव ने जो सबसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त की थी वह थी, भाषा का विकास। भाषा के कारण वह अत्यन्त जटिल बातें अपेक्षाकृत अन्य पषुओं के मुकाबलें अपने लोगों से कर सकता था। वह भाषा के माध्यम से अपने पुराने अनुभव, पुराने देखे हुए रास्ते, उनमें आने वाली समस्यायें और उस पर हुए अनुभवों के द्वारा हल अपनी भावी पीढ़ी के लोगों को बता सकता था। भाषा के माध्यम से ही वह प्रारम्भिक चरणों में षिकार की योजनाएं बनाने में और अन्य प्रजातियों को समाप्त करने में सफल हो सका।
मानव को धर्म की आवष्यकता क्यों पड़ी?
जैसे-जैसे प्राचीन मानव की जनसंख्या बढ़ती जा रही थी, उनका एक ही कबीले में रहना मुष्किल होता जा रहा था। एक से दो और दो से चार कबीलों में बंटते जाने के कारण शक्ति का विकेन्द्रीयकरण होना प्रारम्भ हुआ जिसके कारण उनमें आपस में ही एक दूसरे को अधीन करने को लेकर खूनी संघर्ष होने लगे। भाषा के विकास हो जाने के कारण मनुष्य पहले से अधिक बातों पर विचार करने लगा। पहले तो उस पर मात्र प्रकृति और जंगली जानवरों के आक्रमण का ही भय रहता था किन्तु अब तो उसका भय अपने ही जैसे बुद्धिमान मानवों से भी था। जो कभी भी आकर उन पर हमला कर सकते थे।
भय के ऐसे वातावरण में कोई भी बुद्धिमान प्राणी ऐसी कल्पना अवष्य ही करता है कि या तो वह स्वयं इतना शक्तिषाली हो जाये कि कोई उसे हानि न पहुंचा सके लेकिन ऐसा संभव न था। तो दूसरा विकल्प किसी ऐसी शक्तियों का था जो उसके पास न थी किन्तु वह उनसे अति भयभीत रहता था और वह थी प्राकृतिक शक्तियां, जैसे सूर्य की गर्मी, जल का बहाव, तेज हवाओं का तूफान, बिजली, भयंकर ज्वालामुखी, भूकम्प इत्यादि। इसके पष्चात शक्तिषाली जानवरों और जलरीले प्राणीयों का भी सदैव भय बना रहता था। इन प्राकृतिक एवं वन्य शक्तियों का भय प्रत्येक मानव जाति को था फिर चाहे वह किसी भी कबीले का ही क्यों न हो।
ऐसे समय में मानव ने कल्पनाओं का सहारा लेना प्रारम्भ किया जिसका मुख्य कारण उसका खुद का इन सब डरों से बाहर निकलना और दूसरे कबीले के लोगों को भी इन प्राकृतिक आपदाओं और वन्य जानवरों के डर से बाहर निकालना। यह सब किसी बड़े आत्म सम्मोहन की तरह था। जिसकी सहायता से समस्त मानव जाति को एक साथ लाया जा सके और वह मात्र भय था और अज्ञानता थी। इस भय और अज्ञानता को केन्द्र में रखते हुए मानव ने ऐसी कल्पनाओं का सहारा लिया जिससे वह सभी कबीलों पर नियंत्रण कर सकता था क्योंकि उन सभी भयों से से बाहर निकलने का किसी के पास भी कोई उपाय न था। उन बड़ी कल्पनाओं में मानव ने सोचा कि शायद कोई ऐसी सबसे बड़ी शक्ति अवष्य है जो इन सब प्राकृतिक और वन्य शक्तियों पर नियन्त्रण करती है क्योंकि इन सब पर नियन्त्रण स्वयं मनुष्य करना चाहता था किन्तु ऐसा कभी संभव न था। इसलिए उसने एक ऐसी शक्ति की कल्पना की जो सर्वषक्तिषाली है अर्थात ईष्वर या भगवान। प्रारम्भ में मनुष्य ने प्रत्येक शक्ति के लिए अलग-अलग भगवानों या देवताओं की कल्पना की जैसे बारिष के देवता, अग्नि के देवता, वायु के देवता, अन्न के देवता, यहां तक की युद्ध के देवता और इस तरह के अनेकों देवी-देवताओं की कल्पनाओं के सहारे मानव अपनी कमजोरियों को सहारा देता चला गया। प्रारम्भ में कबीलों में कोई अधिक सामाजिक नियम न थे। जिससे लोगों में डर बैठे, चोरी करना दूसरे की औरत पर हाथ डालना हत्या करना इन सब को रोकने के लिए कबीलों के मुख्य लोगों ने ईश्वर का हवाला दिया ईश्वर की कहानियां गड़ी क्यूंकि मनुष्य बहुत कल्पनाओं में जीने वाला व्यक्ति था प्रकृति को देखते हुए उसने सोचा कि कोई तो निर्माता होगा उसी को देखते हुए, ईश्वर के प्रति कुछ नियम निकाले अच्छे बुरे की समझ रखी जो ईश्वर के प्रति सही है वही होगा जो कार्य गलत होगा उसकी वजह से ईश्वर नाराज होगा ओर दंड देगा और जो लोग अच्छे कार्य करेंगे ईश्वर उन्हें स्वर्ग देगा ओर जो बुरे कार्य करेगा उसे आग वाला नरक इस तरह का लाभ का लालच दिया और नियम लागू किए ओर उनकी कहानियां गड़ी जिनको दूर दूर तक फैलाया, जिसकी वजह से लोग थोड़ा सभ्य हुए ऐसा नहीं है कि पूरी तरह सब बंद हो गया कुछ मूर्ख लोग कहा मानते है लेकिन वो गलती करते तो कबीले वाले दण्ड देते।
शक्ति का केन्द्रीयकरण
यदि ईमानदारी से बात की जाये तो धर्म और ईष्वर की उत्पत्ति का एकमात्र उद्देष्य शक्ति का केन्द्रीयकरण ही रहा है। यदि धर्म और सभ्यता के इतिहास में पीछे मुड़कर देखा जाये तो स्पष्ट रूप से समझ में आता है कि जैसे ही मानव ने ईष्वर की कल्पना का सहारा लेकर शक्ति को केन्द्रीकृत करना प्रारम्भ किया और सैंकड़ों सालों तक अन्य लोगों पर राज करता रहा और अपनी सत्ता बचाये और बनाये रखने के लिए किस प्रकार शासकों ने धर्म के नाम पर आम लोगों पर अत्याचार किये और उनका प्रत्येक स्तर पर शोषण किया। उसके बाद समय-समय पर अनेकों अन्य धर्मों का उदय होना और उसके पष्चात सत्ता और शक्ति का जिस प्रकार से प्रयोग हुआ है वह किसी से भी छिपा नहीं है। जिसके विषय में यदि आप अधिक जानना चाहते हैं तो आप स्वयं किसी भी धर्म के उदय होने का प्रारम्भिक इतिहास से लेकर वर्तमान स्थितियों का अध्ययन कर सकते हैं। प्रत्येक धर्म के उदय होने के बाद उसमें से ही अनेकों शाखाओं का निकलना, फिर उनमें ही आपस में विचारों का न मिलना और आपस में शत्रुता का भाव सीधे-सीधे मात्र शक्ति के केन्द्रीयकरण की ओर ही संकेत करता है। जो भविष्य में कभी भी किसी सभ्य समाज के निर्माण की ओर संकेत कभी भी नहीं करता। अपितु यदि धर्म का सम्मोहन इसी प्रकार चलता रहा तो हमें सबसे पहले भूतकाल में हो चुके सभी धर्मों के उदय से लेकर अंत तक की अवष्य समीक्षा कर लेनी चाहिए कि वास्तव में हमें किस प्रकार के भविष्य की आवष्यकता है...!