दषहरा के पर्व बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। बुराई चाहे कितनी भी षक्तिषाली क्यो न हों और अच्छाई का साथ देने वाले लोग कितने ही दुर्बल स्थिति में क्यों न हो, धर्म और सच्चाई की षक्ति अंत मे बुराई पर भारी ही पड़ती है। वह बात अलग है कि आज के समय में अच्छाई का साथ देने वाले लोगो की संख्या बहुत ही कम है और हर तरफ बुरे लोगो का बोलबाला है। बुरे लोग ही समाज में उच्च वर्ग पर बैठ कर षासन करते हैं और अपनी विचार धारा से मेल खाते लोगो पर अपनी कृपा दृश्टि बनाये रखते है यदि कोई भूलवष उनका विरोध करने का दुस्साहस करता है तो उसको अनेको प्रकार से कश्ट दिये जाते हैं और अन्त मंे विरोध करने वाला व्यक्ति हार मान कर चुप हो जाता है। इसी लिए वर्तमान समय में बुराई जीतती हुई नजर आती है और अच्छाई का पलड़ा हल्का जान पड़ता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि अच्छाई का साथ देने वाले लोगो में भी कही न कही बुराई के कुछ अंष होते है जिन्हे वह व्यक्ति सदैव सबसे छिपा कर रखना चाहता है और उसे सुधारकर आत्मषुद्धि की और अग्रसर होने की इच्छा नही रखता।
यदि हम रामायण के पात्रांे की और नजर डाले तो हमे अनेको स्थानो पर कई दृष्य ऐसे मिल जायेगें जहा हमें यह सीखने को मिलेगा कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन मंे ऐसे मोड़ अवष्य आते है जहां उसे अच्छाई और बुराई के दो मार्गाे मेे से एक का चुनाव करना होता हैं और वह चुनाव ही उक्त व्यक्ति के सम्पूर्ण भावी जीवन का निर्धारण करता हैं। रामायण के प्रमुख पात्र बाली की यदि बात की जाये तो उसे भी अपने जीवन मेे अनेको ऐसे अवसर मिले जब वह सही और गलत के चुनाव करने की स्थिति में था। स्वंय अति बलषाली होने के कारण वह अनेको अच्छे कार्य कर सकता था और अपने भाई सुग्रीव को सम्पूर्ण जीवन अपने ही अधीन रखते हुए अच्छा जीवन व्यतीत कर सकता था लेकिन इसके विपरीत बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी पर गलत नजर डालता है और अपने छोटे भाई की हत्या का प्रयास करता हैै। जिससे विवष होकर ऐसी परिस्थितिया बनती है। कि सुग्रीव को न्याय पाने के लिए श्री राम की सहायता की आवष्यकता पड़ती है जो बाली की मृत्यु का कारण बनते हैं।
ठीक इसी प्रकार रामायण के सबसे षक्तिषाली पात्रों में से रावण उसके पुत्र मेघनाथ, भाई कुम्भकर्ण और विभीशण की बात की जाये तो यह बात समझ में आती है कि जिस प्रकार रावण महाज्ञानी, महान तपस्वी और अत्यन्त षक्तिषाली षासक था। सत्ता और षक्ति के नषे में चूर रावण को अपनी षक्ति का अत्यन्त अभिमान था कि सम्पूर्ण विष्व में उसे परास्त करने वाला कोई नहीं। यह बात किसी आष्चर्य से कम नहीं कि इतना बुद्धिमान और ज्ञानवान रावण अपने समय के योद्वाओं जैसे बाली, सहस्त्रअर्जुन से हार का स्वाद चखने के बाद भी रावण के अहंकार में कोई कमी न आई।
अहंकार या अभिमान सदैव ही स्वयं को सर्वोत्तम मानता है, यद्यपि वह जानता है कि यह सत्य नहीं किन्तु वो कहते हैं ना सौ अच्छाई पर कभी-कभी एक बुराई भारी पड़ जाती है। अहंकार के कारण रावण का समस्त ज्ञान और विद्वता इस कारण विफल हो गई कि वह अन्य किसी को भी मात्र अभिमान के कारण कुछ भी नहीं समझता था। दिव्य वरदानों की षक्ति के कारण षक्तिषाली देवताओं, दानवों, गंधर्वों, यक्षों और नागों केा हराने के पष्चात रावण मनुश्य को अत्यन्त तुच्छ मानता था कि वह उस पर कदापि जीत प्राप्त न कर सकेंगे। दुष्मन को अहंकारग्रस्त होकर देखने के कारण वह उनकी षक्ति न आंक सका। जिस कारण अनेकों बार रावण को ऐसे मौके मिले जब वह सही और गलत रास्ते के चुनाव करने की स्थिति में था किन्तु अहंकार ने कभी उसे सही रास्ता चुनने न दिया जिसके कारण आज रावण के किरदार को नकारात्मक जाना जाता है। मात्र एक अवगुण किस प्रकार सभी गुणों को खा जाता है, इसका सर्वश्रेश्ठ उदाहरण लंकापति रावण है।
इसके विपरित रावण के ही भाई विभीशण को भी इन दो मार्गों का चुनाव करने का अवसर प्राप्त हुआ जिसने अपने अनुसार सही मार्ग का चुनाव किया। जिसके कारण भले ही उसके मार्ग में प्रारम्भ में अनेकों कठिनाईयां आई किन्तु अन्त विभीशण का सुखद रहा।
यह बात हम सभी के जीवन पर लागू होती है कि सही और गलत के चुनाव में हम किसका चुनाव करते हैं यही हमारे किरदार को बनाता और बिगाड़ता है। वास्तव में अपने भाग्य के विधाता कहीं न कहीं हम स्वयं ही हैं। जिसे हम जैसा चाहे वैसा बना सकते हैं।