सत्य भारतीय संस्कृति का सार है। इसमें सत्य को धर्म से भी पहले स्थान दिया गया है। हम सदैव सत्य का ही आचरण करें। भीतर और बाहर की एकता, जिसे सत्य के नाम से पुकारा जाता है, मनुष्यता का सर्वप्रथम गुण है। हम जैसे हैं, वैसे ही दूसरों के सामने अपने को पेकट करें। जो मन में है, वही वाणी से प्रकट करें और वैसे ही कर्म भी करें। ‘मनसा वाचा कर्मणा’ एकरूप, एकरस ही रहें। इस सच्चाई से अंतरात्मा की निर्मलता बनी रहती है और चित्त प्रफुल्लित रहता है। इस प्रकार के शुद्ध अंतःकरण में ही शांति रहती है और ईष्वरीय प्रकाष की किरणें फूटती हैं।
हम एक दूसरे पर सहज विष्वास करें तो ही पारस्परिक सद्भावना से रह सकते हैं। समाज की सारी व्यवस्था एकदूसरे के विष्वास पर ही टिकी है। यह विष्वास नष्ट हो जाए तो न तो एकदूसरे पर भरोसा करेंगे और न समाज-व्यवहार स्थिर रखा जा सकेगा। प्रेम, मित्रता, सहयोग, सहायता आदि का आधार सत्य ही है।
असत्य व्यवहार एवं असत्य भाषण करना, असत्य विष्वास दिलाना, अपनी मान्यता के विपरीत कुछ का कुछ बता देना, अपनी स्थिति को छिपाकर दूसरी तरह प्रकट करना, अपने इरादों को छिपाना, ये सब असत्य भाषण के अंतर्गत ही आते हैं। केवल झूठ बोलना ही असत्य नहीं है। अन्य प्रकार से अपने द्वारा किसी को भ्रम में डाल देना, यह सारा क्रियाकलाप भी असत्य की परिधि में ही आता है। उसे दूसरे शब्दों में छल या ठगी भी कह सकते हैं। भले ही किसी का पैसा न ठगया गया हो, पर विष्वास को ठग लेना भी कुछ कम पाप या अपराध नहीं है।
विष्वास खो बैठना, संदिग्ध एवं अप्रामाणिक रहना मनुष्य का अषोभनीय पतन है। प्रतिष्ठा उसी की है, जिसका विष्वास किया जा सके। जिसका विष्वास चला गया, वह समाज में निकृष्ट स्तर का समझा जाता है। असत्य भाषण से परस्पर संदेह, आषंका, अविष्वास और प्रवंचना की स्थिति बनती है और मन से प्रेम और मैत्री का उल्लास ामाप्त हो जाता है। आषंका का आतंक हर बात में हर व्यक्ति के प्रति संदेह और अवष्विस करने के लिए प्रेरित करता है। ऐसे में श्रद्धा की भावना कहां टिक सकेगी। सभी में घृणा और धूर्तता की गंध आएगी। वचनपालन और विष्वास जब मानवीय आचार संहित से बाहर हो जायेंगे, तब मनुष्य अपने को एकाकी अनुभव करेगा और जीवन निर्वाह कठिन ही नहीं, असंभव हो जाएगा।
झूठ बोलने वाला व्यक्ति स्वयं भी सदा भयभीत रहता है। असलियत छिपती नहीं। वह आज नही ंतो कल प्रकट हो ही जाती है। झूठ का प्रभाव कुछ समय तक ही रहता है। एक झूठ को छिपाने के लिए हजार झूठ और बोलने पड़ते हैं। फिर भी शंका बनी ही रहती है। दूसरी ओर सत्य एक दृढ़ चट्टान के समान सदा स्थिर रहता है और मन पर किसी भी प्रकार का बोझ नहीं रहता। सत्य की आभा से मनुष्य का व्यक्तित्व दमकता रहता है।
हम वेदवाणी का अनुसरण कर, सत्य को समग्र रूप से अपनाने को तत्पर हों।