आज समाज में जहां एक ओर इंसान के अच्छे कामों की चंद मिसालें हैं तो वहीं दूसरी ओर इंसानियत को शर्मसार करने वाले ऐसे अनेकों कारनामें देखने को मिल जाते हैं जिससे लगता है कि वाकई आज के इंसान इंसानियत की परिभाशा को ही बदल रहे हैं। या यूं कहें कि इंसानियत के कदम हैवानियत की ओर बढ़ रहे हैं।
फिर चाहे उसका कोई भी कारण हो लेकिन एकाएक जब किसी के चेहरे से पर्दा उठता है तो उक्त व्यक्ति जो कुछ पल पहले फरिष्ता जान पड़ता था, वह दरिन्दगी की हदें पार करता हुआ दिखाई देता है जो वाकई दिल दहला देने के लिए काफी है।
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पूरी दुनियां को शांति का संदेष देने वाले देषों में ही अक्सर ऐसी घटनाएं देखने को मिल जाती हैं जो शांतिदूत होने की झूठी पोल खोल देती हैं। फिर चाहे वह भारत हो, अमेरिका, ब्रिटेन या कोई अन्य देष? आज सम्पूर्ण विष्व शीतयुद्ध की आग में झुलस रहा है। विष्व के कुछ बड़े देष विष्व में नम्बर एक बनने की होड़ में अन्य देषों को युद्ध की आग में झोंक रहे हैं। जिसका नतीजा सभी को ज्ञात है, कि वास्तव में युद्ध से होने वाली हानि इतनी गंभीर होती है जो मानव को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सभी स्तरों पर अत्यधिक हानि ही पहुंचाती है। उदाहरण के लिए विष्व की एक बड़ी शक्ति रूस और अमेरिका स्वयं की शक्ति को सर्वोच्च दिखाने मात्र के लिए अन्य छोटे देषों का जिस प्रकार उपयोग करते हैं उसके कारण उन देषों के लोगों को अपनी जान-माल से हाथ तो धोना ही पड़ता है, उसके साथ-साथ आर्थिक रूप से वह इनके समक्ष सैंकड़ों साल पिछड़ जाते हैं। सदा सबसे आगे बनने की इस प्रतियोगिता में एक देष दूसरे देष को हानि पहुंचाने से भी नहीं चूकता।
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यदि थोड़े छोटे स्तर पर बात करें तो चाहे कोई भी देष हो, वह एक-एक व्यक्ति से मिलकर ही बनता है। जिस देष में जिस प्रकार के व्यक्तियों की संख्या अधिक होती है, हम वस्तुतः उस देष को वैसा ही मान सकते हैं। एक सामान्य व्यक्ति भी वर्तमान समय में सर्वप्रथम आने की चाहत रखता है, अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है, अधिक से अधिक शक्ति चाहता है और इन सबके पष्चात वह अन्य लोगों को अपने समक्ष कमतर करना चाहता है। मात्र यही चाहत व्यक्ति को मानव से दानव बनाने का काम करती है। सभी बुराईयों के पीछे यदि देखा जाये तो लालच और कामभावना सभी बुराईयों की जड़ है। सर्वाधिक धन, सम्पत्ति, शक्ति कमाने का वास्तव में क्या उद्देष्य हो सकता है? मात्र इन भावनाओं की पूर्ति करना। जिसे वह मात्र चालाकी, कपट और हिंसा के द्वारा ही प्राप्त करता है।
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कभी कहीं कुछ लुटेरे किसी घर में घुसकर समस्त परिवार की निर्मम हत्या कर धन लूट ले जाते हैं। तो कहीं एक छोटी सी कहासुनी खूनी लड़ाई में बदल जाती है। नषे की गिरफ्त में फंसे युवाओं को मानवता को शर्मषार करने में जरा भी देरी नहीं लगती। वह मात्र नषे के लिए कुछ भी कर गुजरते हैं। फिर चाहे वह उनके मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे ही क्यों न हों, वह किसी पर रहम नहीं दिखाते।
पंजाब, हरियाणा, उत्तर-प्रदेष जैसे प्रदेषों में अधिकतर जमीन और सम्पत्ति के संबंध में एक दूसरे को मार, उनकी सम्पत्ति पर कब्जा जमा लेना तो आम बात हो चुकी है। यह सब इंसान के भीतर छिपी लालच की भावना का एक ऐसा उदाहरण है, जो कहीं भी देखने को मिल जाता है।
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वहीं दिल्ली का निर्भया काण्ड किसी से छिपा नहीं है, किस प्रकार कुछ नवयुवकों द्वारा एक चलती बस में एक लड़की का बलात्कार कर उसकी निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी जाती है। वहीं नोएडा का निठारी काण्ड भूले नहीं भूलता कि किस प्रकार एक नरभक्षी मालिक और नौकर छोटे-छोटे बच्चों को मारकर खा जाते थे। न जाने कितने बच्चे-बच्चियों को उन्होंने मार डाला। जब पुलिस ने उन्हें पकड़ा तब मीडिया द्वारा पता चला कि उनके घर में सैकड़ों की संख्या में नर-कंकाल पाये गये। इससे बड़ी हैवानियत और क्या हो सकती है जब इंसान-इंसान को किसी जानवर की भांति मात्र अपनी स्वादपूर्ति के लिए मार सकता है। इस प्रकार यदि हम अपने देष से बाहर निकल अपने पड़ोसी देष चीन के लोगों के कार्य देखें तो ऐसा प्रतीत होगा कि वाकई इंसान में इंसानियत नहीं बची। चीन के लोगों के बारे में एक कहावत है कि कुर्सी-मेज को छोड़कर वह सबकुछ खा जाते हैं। फिर चाहे वह इंसानी अजन्में बच्चे का भू्रण हो, जो पषु, पक्षी, कीट-पतंगा सभी कुछ वह कच्चा पक्का और उन्हें बड़ी निर्दयता पूर्वक मारकर मात्र अपनी स्वादापूर्ति हेतु खा जाते हैं।
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जम्मू-कष्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक इस दरिन्दगी का सिलसिला अनवरत जारी है। बस अन्तर इतना है कि प्रत्येक स्थान पर कारण बदलते हैं। कहीं हिंसा का कारण दो देषों के मध्य राजनैतिक होकर आतंकवाद को जन्म देते हैं। वहीं देष के अंदर राजनेता अपनी पार्टी के वर्चस्व हेतु सत्ता प्राप्त करने के लिए धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं। कभी हिन्दू-मुसलमान के नाम पर दंगे भड़कते हैं, तो कभी गौ रक्षा के नाम कुछ साम्प्रदायिक गुण्डे किसी अकेले इंसान को पीट-पीटकर मार डालते हैं, कभी किसी आंदोलन के नाम पर आंदोलनकारी लूटपाट, तोड़फोड़ और बलात्कार करने तक से नहीं चूकते। तो कभी सत्ता में बैठी सरकार के इषारों पर ही जनता द्वारा उठाई गई किसी उचित मांग को दबाने के लिए झूठे केस और एनकाउन्टर को सिलसिला चलता है।
यदि देखा जाये तो जहां देखा हिंसा का ही बोलबाला है। जहां रक्षक ही भक्षक बनने को उतारू हो जाये, जो फिर जनता करे भी तो क्या करे। कानून और व्यवस्था के नाम पर मात्र खानापूर्ति की जाती है जहां गरीब छोटे केस में भी धन न होने के कारण सालों साल जेलों में सड़ता रहता है वहीं दूसरी ओर अमीर व्यक्ति बड़े से बड़े कारनामे कर अपने धनबल के बूते कानून को ठेंगा दिखाकर खूले घूमते दिखाई पड़ते हैं।
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किन्तु यह बात सर्वमान्य सत्य है कि हिंसा का नतीजा प्रत्येक स्थान पर एक ही है, किसी को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से इतना नुकसान पहुंचा देना जिससे भोक्ता का उबर पाना अत्यन्त ही कठिन हो जाता है। वो कहते हैं न कब्र की हालत मुर्दा ही जानता है। किसी अन्य का दर्द वही व्यक्ति अनुभव कर सकता है, या तो वह स्वयं उस दर्द से गुजरा हो या उसमें इतनी समझ हो कि उसे किसी अन्य के स्थान पर स्वयं को रख कर देखने की क्षमता हो।
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अंत में ईष्वर से इतनी ही प्रार्थना है कि वह समस्त विष्व के लोगों को सद्बुद्धि दे कि वह सभी हिंसा के मार्ग को त्यागकर उन्नति के मार्ग की ओर अग्रसर हों, और सबसे अधिक इसकी जिम्मेदारी उन लोगों पर हो जाती है जिनके पास अत्यधिक धन है, राजनैतिक शक्ति है, उत्कृश्ठ षिक्षा और बुद्धि है। बाकि अन्य सभी सामान्य लोगों का षिक्षित होना अति अनिवार्य है, षिक्षित और बुद्धिमान व्यक्ति कदापि हिंसा का मार्ग नहीं अपनाना चाहेगा क्योंकि वह उससे होने वाले अंजाम से सदैव परिचित रहता है। जियो और जीने दो की कहावत बेषक पुरानी है लेकिन प्रत्येक समय और काल में यह सार्थक सिद्ध होती है।