सूर्य का उदय होना जितना निष्चित है, उतना ही यह भी निष्चित है कि मध्याह्न के उपरांत वह ढलेगा और धीरे-धीरे अस्ताचल की गोद में पहुंचकर मुंह छिपा लेगा। जीवन-प्रक्रिया के संबंध में भी यही बात है। षिषुरूप् में जन्म लेने के उपरांत वह क्रमषः किषोर, युवा, प्रौढ़ बनता और उसके उपरांत बुढ़ापे के भार से दबता है। बुढ़ापा मृत्यु का पूर्व संकेत है। मृत्यु प्रायः अचानक किसी विरले पर ही टूटती है। उसके निमंत्रणपत्र एक-एक करके कई किस्तों में आते हैं। बालों का सफेद होना, दांत उखड़ना, नेत्रों और कानों की शक्ति का क्षीण होना, पैर लड़खड़ाना हाथों का कांपना, पाचनतंत्र का दुर्बल होना, नींद कम आना जैसे चिन्ह यह बताते हैं कि जीवनषक्ति का भंडार क्रमषः चूक रहा है और निकट भविष्य में ऐसी स्थिति आने वाली है, जिसमें शरीर जीवन का अंत हो जाए, इहलीला की इतिश्री हो जाये।
क्या हम मृत्यु से बच सकते हैं? अजर-अमर हो सकते हैं? लोग मान्यता तो ऐसी ही बनाए रहते हैं। अपने मरने की बात कभी सोचते तक नहीं। सदा बने रहना है, यही सोचकर गतिविधियां बनाते हैं। संपदा का लालच, प्रियजनों का मोह और लोगों पर धाक जमाने की हवस इतनी बढ़ी-चढ़ी होती है कि उसमें यह गंध तक नहीं होती कि मरने के बाद यष-अपयष की कोई परंपरा भी छोड़नी है। मरणोत्तर जीवन में दूसरों को मार्ग दर्षन के लिए कोई अनुकरणीय उदाहरण भी छोड़ा जा सकता है क्या? इस प्रष्न पर विचार तभी बन पड़ता है, जब मरण की बात ध्यान में आए। राजा परीक्षित को एक सप्ताह में मृत्यु हो जाने की बात सूझी थी। उसने उतने ही समय में यह प्रबंध कर लिया कि शरीर की समाप्ति के साथ ही जीवनमुक्त होने का प्रयोजन सिद्ध हो गया। हममें से किसी को यह ध्यान रहे कि मरना निष्चित है और वह कभी भी हो सकता है, उसके लिए यह आवष्यक नहीं कि पूर्ण आयु ही प्राप्त हो। कितने ही भरी जवानी में यहां तक कि किषोरावस्था में ही काल के ग्रास बन जाते हैं। उस बालमृत्यु को क्या कहा जाए, जो बोलना-चलना सीखने से पूर्व ही बड़ी संख्या में प्रयाण कर जाते हैं।
मृत्यु निष्चित है। अन्यान्य की तरह अपनी भी। तो इस बोध के आधार पर शेष जीवन के श्रेष्ठम सदुपयोग की बात सोची जा सकती है। जो सोचा जाता है, वही क्रम भी चल पड़ता है। इस प्रकार मृत्यु की सुनिष्चितता पर विष्वास करने के उपरांत दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन होता है। परलोक की बात सूझती है। यह प्रष्न सामने आ खड़ा होता है कि नारकी यंत्रणाओं से बचा जाए। हेय, निकृष्ट अनगढ़ योनियों में फिर से धकेल दिए जाने के कुचक्र से बचा जाए। उबरने का यह सुयोग सामने हे, तो उसका समुचित लाभ उठाया जाए। यह विचारधारा सामने बनी रहे, तो व्यक्ति अधिकाधिक शालीनता और उदारता अपनाता है। सज्जन और परमार्थपरायण बनता है। इस दिषाधारा को अपनाने से ही लोक परलोक बनता है। मृत्यु का स्मरण करके किसी को घबराने की आवष्यकता नहीं है। जो सुनिष्चित है, उसके लिए समय रहते तैयारी करना ही बुद्धिमानी है।
समय ही जीवन है। एक-एक पल को हीरे मोतियों से भी बढ़कर मानना चाहिए और उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़े, इसका प्रयत्न करना चाहिए। जिसने यह कर लिया, समझना चाहिए कि उसने मृत्यु को जीत लिया। जीतने का तात्पर्य है-लाभ उठा लिया। भौतिक या आत्मिक प्रगति के लिए जीवन के छोटे-से-छोटे घटक का ऐसी गतिविधियों में नियिोजित करना चाहिए, जिससे आत्म-संतोष बढ़ता रहे और साथ ही लोक मंगल का परामर्ष बन पड़ने पर जन-सम्मान एवं भावभरा सहयोग भी हस्तगत होता रहे। यह उपर्जन ही इस लोक और परलोक के लिए सच्चा वैभव सिद्ध होता है। दूसरों को मरते देषकर हमें अपनी मृत्यु का स्मरण करना चाहिए। भव्य भवनों को देखने के साथ-साथ कभी-कभी श्मषानों और कब्रिस्तानों में भी जाना चाहिए और वहां एकांत में बैठकर यह कल्पना चित्र उभारना चाहिए कि अगले दिनों हमारा ठिकाना भी उन्हीं क्षेत्रों में बनने जा रहा है। मृत्यु के प्रति निष्ठावान व्यक्ति ही जीवन का सदुपयोग कर पाते हैं।
मृत्यु से बचा तो नहीं जा सकता, पर उसके आगमन की अवधि को बढ़ाया जा सकता है। इसका उपयोग है, समय के मणिमुक्तकों का एक-एक घटक श्रेष्ठता की दिषाधारा में बहने और आगे बढ़ने के लिए प्रयत्यनषील होना। आलस्य और प्रमाद में जितना समय गंवाया गया, समझना चाहिए कि जीवन का उतना ही अंष बरबाद हो गया और मृत्यु उतनी ही जल्दी निकट आ गई। कितने ही व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्होंने समय के प्रयेक क्षेण को योजनाबद्ध रीति से व्यतीत किया। फलतः अपनी उस योग्यता, प्रतिभा को बढ़ाया, जो आगे भी जन्म-जन्मांतरों तक साथ चलती है। इसके विपरीत ऐसे लोग भी कम नहीं होते, जो धनसंचय करने, उसे अपव्यय में उड़ाने के लिए अतिरिक्त परिवार को विस्तृत करते जाने और उसके ऊपर महंगा दुलार लुटाने में व्यस्त एवं मस्त रहते हैं। वासना, तृष्णा और अहंता की ललक-लिप्सा ऐसी है, जिसे सहज ही पूरा नहीं किया जा सकता। वास्तविक आवष्यकताओं की पूर्ति तो सरल है, किंतु तृष्णा की खाई पाट सकना किसी के लिए भी संभव नहीं होता। सिकंदर जैसे अतुल वैभव के धनी को भी ताबूत से बाहर हाथ निकलकर विदाई लेनी पड़ी, ताकि लोग समझ सकें कि वह विपुल ऐष्वर्यवान तो बना, पर खाली हाथ आया और खाली हाथ ही चला गया।
क्या बुढ़ापा समय के सदुपयोग के अतिरिक्त और किसी प्रकार भी आगे धकेला जा सकता है? इसके उत्तर में एक और भी मार्ग सामने आता है कि अपनी मनःस्थिति को संतुष्ट, प्रफुल्ल, पुलकित रखाजा। मन को भारी न होने दिया जाए। विषेष रूप से इस संदर्भ में कि हम बूढ़े हो चले या हो गए? मान्यताएं ही वास्तविकता बनती और अपने स्वरूप का परिचय देती हैं। जो ऐसा सोचता है, वह वैसा बनता भी है।
मनुष्य की वास्तविक आयु क्या है? इसका उत्तर एक ही है कि जो अपने को जिस आयु का मानता है, वह उतना ही बड़ा है। उसकी वास्तविक आयु निजी मान्यता के अनुरूप ही परिलक्षित हो सकती है। यह संभव है कि अधिक आयु का होते हुए भी कोई व्यक्ति अपने संबंध किषोर या तरूण जैसी मान्यता अपनाए रहे। इससे उसके स्वभाव एवं प्रयास में वही लक्षण प्रकट होते दीखते हैं। वार्तालाप में, योजनाक्रम में वैसे ही लक्षण दीख पड़ते हैं। स्वयं की मान्यता ही दूसरों को भी उसी के अनुरूप प्रभावित करती और वैसी ही छाप छोड़ती है। यही व्यक्ति की वास्तविक आयु है, जिसे तारीख-सन् के आधार पर नहीं निज के संकल्प द्वारा निष्चित एवं प्रकट किया जाता है। इसके ठीक विपरीत ऐसा भी हो सकता है कि कोई नवयुवक निराष हो बैठे, अपने को असफल एवं गया-बीता मानें, उस पर जवानी में भी बुढ़ापा चढ़ दौड़ता है, हंसी-खुषी छिन जाती है, पौरूष विदा हो जाता है और मृत्यु का दिन उससे कहीं पहले आ जाता है, जबकि स्वभावतः उसे नहीं आना चाहिए।