मनुष्य को यदि अपने जीवन की सार्थकता को खोजना और सुखी रहना है तो उसे दूसरों के दूख दर्द का ख्याल राते हुए अपनी सामथ्र्य के अनुसार उसकी सहायता करनी होगी। संसार में उसी कार्य अथवा परिश्रम को सार्थक माना गया है, जिससे दूसरों का कष्ट दूर हो सके। जीवन में किसी भी अवस्था, तरीके और स्थिति में परोपकार किया जा सकता है। जरूरत केवल इस बात की है कि व्यक्ति के मन में संवेदनषीलता और दार भावनाएं हों। इस सम्बन्ध में प्राचीन समय के एक प्रसंग से यह साबित भी होता है कि जो व्यक्ति दूसरों का भला करते हैं, उनके लिए जिन्दगी की राहें खुद ब खुद आसान होती चली जाती हें। एक वृद्ध बेसहारा व्यक्ति भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करता था। उसका नित्य का नियम था कि वह अधिक से अधिक भिक्षा प्राप्त करे। इसी प्रयास में वह सवेरे से दूर शाम तक उसी में जुटा रहता था। उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा यह भी था कि जैसे ही वह सवेरे सोकर उठता, नहा-धोकर सबसे पहले मन्दिर जाता, वहां की पूजा में भाग लेता, भगवान को प्रणाम करता, फिर लौटकर भिक्षावृत्ति पर निकल जाता। अपनी कुटिया से जाते समय वह अनाज के दानों से अपनी दोनों मुट्ठियां भर लेता और जहां भी पक्षियों का झुंड देखता, वहां दाने बिखेर देता। दोपहर को जब खाना खाने बैठता तो पहले अपने जैसे ही कुछ जरूरतमंदों में खाना बांटता और तब स्वयं निवाला लेता था। कभी-कभी तो ऐसा करते समय उसे भूखा भी रहना पड़ता था लेकिन इसकी वह चिंता नहीं करता था। जिस दिन वह अधिक परमार्थ करता, उस रात उसे गहरी और सुकूनदायक नींद आती थी। उसके जीवन में कभी कोई अप्रिय स्थिति पैदा नहीं हुई। वह दूसरों की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता खोज लेता था। बन्धुओं! सामान्तयाः मनुष्य की प्रवृत्ति स्वार्थी होती है। ऐसे लोगों की कमी भी नहीं है, जो केवल अपने लिए परिश्रम करते, कमाते और खाते हैं। जो मनुष्य औरों के लिए नहीं सोचता उसका जीवन व्यर्थ है। जीवन सार्थक तभी है, जब दूसरों के लिए कुछ किया जाए। दूसरों की सेवा-सहायता का यह पाठ प्रकृति हमें हर पल सिखाती है, किन्तु हमारा ध्यान उस तरफ नहीं जाता।