कार्य करते हुए इतने वर्ष व्यतीत हो गये कि अब तो ऐसा लगता है मानों हम इन सब चीजों के आदी हो गये हैं। किस कार्य को करने में कितना समय लगेगा, क्या समस्यायें आयेंगी, ऐसी अनेकों बातें जो अक्सर पूर्वनियोजित होती हैं, इतने वर्षों के अनुभव के बाद एक सामान्य सी बात जान पड़ती है लेकिन यह सब इतना आसान भी न था, जितना आज जान पड़ता है।
आज भी मुझे वो दिन याद है जब मैंने पढ़ाई के दौरान पहली बार कम्प्यूटर और टाईपराईटर मशीन देखी थी। सन् 2000 की दशक में कम्प्यूटर की शिक्षा छोटी कक्षाओं में नहीं थी, इसे दसवीं, बारहवीं के बाद अलग से किसी कोर्स के रूप में किया जाता था। जो आज भी जारी है लेकिन छोटी कक्षाओं में ही कम्प्यूटर की सामन्य शिक्षा आज सभी बच्चों केा मिल जाती है जिसके कारण वह बड़ी सरलतापूर्वक आगे की तकनीकी सीख जाते हैं। अपने कार्य की शुरूआत मैं वहीं से कह सकता हूं, सर्वप्रथम उस कार्य से सम्बन्धित शिक्षा का प्रारम्भ हुआ। कम्प्यूटर से पहले टाईप मशीन का प्रयोग सीखा। जो वास्तव में इतना भी सरल नहीं जितना कम्प्यूटर का की-बोर्ड चलाना। टाईपराइटर के बटन चलाने से दो बातें तो सही रही। एक टाईपिंग का प्रारम्भिक ज्ञान टाईपराइटर में सीखना का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि व्यक्ति में प्रारम्भ से ही टाईपिंग में गलतियां न करने की भावना जाग्रत रहती है। टाईपराईटर में एक बार अक्षर छप जाने के उपरांत उसे मिटाया नहीं जा सकता और दूसरा व्यक्ति की उंगलियों में जान आ जाती है। भारी भरकम टाईपराईटर के बटनों को दबाने में खासी मशक्कत का सामना करना पड़ता है। जिनके उंगलियों की अच्छी खासी कसरत हो जाती है। फिर जैसे-जैसे टाईपिंग स्पीड बढ़नी प्रारम्भ हो गयी उसके बाद सोचा कि कम्प्यूटर भी सीखा जाना चाहिए। प्रारम्भ में तो कम्प्यूटर की ब्लैक स्क्रीन देखकर अच्छे खासे लोगों की हवा टाईट हो जाया करती थी। जिसमें कमाण्ड दी जाती थी जिसे हम डास प्रॉरम्प्ट के नाम से जानते हैं। उस पर प्रारम्भिक कमाण्ड सीखते समय ऐसा अनुभव होता था, मानों इससे कठिन प्रोग्रामिंग कोई है ही नहीं, वो तो बहुत बाद में जाकर पता लगा कि यह तो मात्र प्रारम्भिक चरण है, जो सरल से सरल है, इसके आगे तो अभी बहुत कुछ सीखना और देखना है।
इसी प्रकार एम0एस0 वर्ल्ड, एक्सल, पावर प्वाइंट सीखने में तो ऐसा लगने लगा कि कम्प्यूटर से कठिन कुछ भी नहीं, कैसे इतने सारे फंक्शन पर कार्य कर सकेंगे। लेकिन जैसे कि कहते हैं ना, प्रैक्टिस मेक्स परफैक्ट, वो भी समस्यायें खत्म हो गयी।
अब बात करते हैं, जीवन के पहले कार्य दिवस की। पढ़ाई के साथ-साथ एक पार्ट टाईम कार्य प्रारम्भ किया था जिसे अपना पहला कार्य अनुभव कह सकता हूं। जो मेरे लिए किसी चैलेंज से कम न था। वो इसलिए कि प्रारम्भ से ही सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं है। कम से कम सुबह 7 या 8 बजे से पहले उठना अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है। यदि किसी तरह उठ भी जायें तो पूरे दिन सुस्ती बनी रहती है। तो उस समय एक पी0सी0ओ0 में कार्य मिला। जहां सुबह 5 से 9 बजे तक काम करना था। काम भी क्या, मात्र दुकान खोलकर, पी0सी0ओ0 में बैठ जाना और फोन करने आने वाले लोगों से उनका हिसाब लेकर अगली शिफ्ट में आने वाले व्यक्ति को हैण्डओवर कर देना। काम तो सरल था। जिसकी उस समय सैलरी मात्र 500 रूपये मिलती थी लेकिन खर्चे बहुत कम होने के कारण वह भी मेरे लिए महीने भर के लिए काफी थी। एक साल कार्य किया। उसके बाद कम्प्यूटर जॉब वर्क में अलग-अलग स्थानों पर अनेकों अच्छे-बुरे अनुभव प्राप्त हुए जो जीवन में आज तक काम आते हैं।
अनुभव जो सदैव हमें प्राप्त होते ही रहते हैं, लेकिन जीवन का प्रथम दिन का प्रथम अनुभव ऐसा होता है जिसे शब्दों में बताया जा सकता बहुत कठिन है। पहले दिन का वो डर, जिसमें कुछ गलत न हो जाने का भय होता है, कुछ नया सीखने का उत्साह होता है और अपने को कमतर समझने की हीनभावना होती है और ऐसे अनेकों ऐसे भाव जिसका सामना हरेक व्यक्ति ने अपने जीवन में अवश्य किया है। मात्र उस पर विचार कर उसे समझने की आवश्यकता है क्योंकि वही अनुभव और भावना हमेशा हमारे साथ चलती हैं, थोड़ा अन्तर मात्र अनुभव का होता है, लेकिन सीखने की प्रक्रिया के लिए सदैव नया सीखने की उत्साह अवश्य होना चाहिए, वह किसी भी आयु में हो सकता है जिसे मैं अभी तक अपने कार्य के पहले दिन से अभी तक लेकर चल रहा हूं और जब उस दिन के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि वो पहला दिन, उस दिन के साथ ही मेरे साथ खिंचता आ रहा है जो अनन्त समय तक जारी है।