त्यौहार ही तो हैं जो बेरंग जिन्दगी को रंगों से सराबोर कर देते हैं। यन्त्रवत् कार्य करते-करते मनुश्य के मस्तिश्क को ताजगी और ऊर्जा भर देने के लिए त्यौहार ही हैं। फिर चाहे वो कोई भी त्यौहार हो, सबका उद्देष्य एकमात्र यही है कि उबाऊ हो चुके जीवन में कुछ ऊर्जा भर देना, खुषियां भर देना, उत्साह, उमंग और तरंग भर देना। गहन, गंभीर और सधा हुआ व्यक्ति आज के समय में सभ्य माना जाता है किन्तु सत्य यह है कि गंभीरता और अनुषासन बेषक व्यक्ति को जीवन में सफलता दिलवा सकती है लेकिन इससे जो मानसिक तनाव उत्पन्न होता है वो इस सफलता का खोखलापन दर्षाती है। जीवन में प्रसन्नता के लिए थोड़ी सी अनुषासनहीनता भी आवष्यक है। दीपावली में पटाखे बजाने का जो मजा है, जो खुषी है, वो वास्तव में कुछ और नहीं, थोड़ी सी अनुषासनहीनता का स्वाद ही तो है। पटाखों से जलने का खतरा है, तो उसका रोमांच भी तो है। इसी कारण अक्सर लोग बड़े और खतरनाक पटाखे फोड़ने से नहीं चूकते, जितना अधिक खतरा, उतना अधिक रोमांच!
इसी प्रकार होली को ही ले लीजिए, इस त्यौहार में तो अनुषासन की किस प्रकार धज्जियां उड़ायी जाती हैं, यह तो सभी को पता है। किसी और दिन किसी पर रंग डालकर देखिये और रंगीन पानी डालकर देखिये, क्या होता है। लेकिन सभ्य समाज में रोजाना यह संभव नहीं और न ही आवष्यक है, न ही उचित है। इसलिए वर्श में एक दिन ऐसा बनाया गया जिसमें व्यक्ति दूसरों को और स्वयं को गंदा करके प्रसन्नता प्राप्त करता है। साफ-सफाई तो रोज ही करते हैं, कभी गंदे होने का मजा भी तो देखिये, क्या होता है! इसका भी अपना मजा है।
रक्षा बंधन को ही ले लीजिए, बहने षादी हो जाने के बाद साल भर अपने माता-पिता, भाई-बहनों से नहीं मिल पाती। आप ही सोचिए, अगर रक्षा बंधन, भाई दूज जैसे त्यौहार न हों तो कैसे बहनें इतना समय भी निकाल पाएंगी कि वह अपने भाईयों की सुध ले सके और भाईयों को अपने बीवी बच्चों से फुर्सत मिल सके और वह बहनों को याद कर सकें। इन्हीं त्यौहारों के बहाने बहनों को अपने परिवार से मिलने का अवसर मिल जाता है। एक छुट्टी मिल जाती है, और उसके ससुराल वालों को भी कोई बहाना नहीं सूझ पाता कि वह अपने भाई-बहनों से मिलने न जाये क्योंकि उनकी बेटी भी तो आती है।
भारतीय त्यौहारों में अधिकतर पारिवारिक मेल-मिलाप और खुषियों को बांटने का रूप देखा जाता है।