जीवन में पुस्तकों का अत्यन्त महत्व है। यदि जीवन की प्रथम पुस्तक की बात करें तो रंगीन चित्रों की उस पुस्तक को पहली पुस्तक कह सकते हैं जिसे सर्वप्रथम हमने विद्यालय में कदम रखने से पहले देखा था। हिन्दी और अंगे्रजी अक्षरमाला की वह पुस्तक जिसमें बड़े आकार में अक्षर लिखे रहते हैं और जिनके साथ रंग-बिरंगे सुन्दर चित्र बने रहते हैं। अब तो आप समझ ही गये होंगे कि मैं किस पुस्तक की बात कर रहा हूं। यदि आज भी आप वह पुस्तक देख लें तो अवष्य ही आपको वह दिन स्मरण आ जायेगा जब उस पुस्तक को हम कभी आष्चर्यभरी नजरों से देखा करते थे। उस समय वही पुस्तक समझकर उन अक्षरों को लिखने में किसी महान वैज्ञानिक सा अनुभव होता था। उस एक पाठ को समाप्त कर कक्षा में सबसे पहले अगला पाठ सीखकर सपनों की उड़ान बड़े होकर डाॅक्टर, इंजीनियर, पायलट और इस प्रकार के अनेकों चेहरे मस्तिश्कपटल पर घूमने लगते थे कि अब तो हम वही बनेंगे। बच्चों की सपनों भरी दुनियां से कब बाहर निकल आये, पता ही न चला लेकिन फिर भी लगता है कि आज बच्चों जैसे सपने देखने की योग्यता तो हम कब की खो चुके हैं लेकिन फिर भी कोषिष जारी रहती है कि षायद समय का पहिया वापिस पीछे घूमकर वैसी ही भावनाएं पुर्नजीवित कर सके।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में पुस्तकों और उनकी प्रेरणादायक कहानियों का अत्यन्त ही महत्व है। हम सभी ने अपने जीवन में बड़े से बड़े लेखकों और कवियों की पुस्तकें पढ़ी होंगी लेकिन वास्तव में जो मस्तिश्कपटल पर छा जाने वाली सीख होती है, वह हमें बचपन में ही मिलती है। आज भी मुझे याद है जब मैं कक्षा 4 से 5 में गया था। उस समय मन अत्यन्त उत्साहित था क्योंकि पहला तो यह कि विद्यालय की सबसे सीनियर कक्षा में पहुंचने का उत्साह। जिस विद्यालय से मैं प्रारम्भ में पढ़ा वह नर्सरी से कक्षा 5 तक ही था और उस समय कक्षा 5 में भी बोर्ड की परीक्षायें होती थी। जिस कारण पांचवीं में ही दसवीं वाला रवैया आना तो लाजमी है। वहीं दूसरी ओर नई पुस्तकें, बैग, लंचबाॅक्स, पानी की बोतल और नई यूनिफार्म आने का अपना ही आनन्द था। नई पुस्तकों के आते ही सबसे पहले यही काम होता था कि हिन्दी की पुस्तक को किसी काॅमिक्स की भांति एक ही दिन में पूरा पढ़ देना होता था क्योंकि उसमें कहानियां होती थी। उस समय पुस्तक में भारतेन्दु हरिष्चन्द्र की एक मषहूर कहानी “अंधेर नगरी चैपट राजा” पढ़ी, जो कहानी आज भी यदि आप पढ़ेंगे तो आपको वास्तव में अपने बचपन के दिन पचपन में जरूर याद आ जायेंगे क्योंकि वह कहानी थी ही बहुत कमाल की। इसी प्रकार एक अन्य कहानी हार की जीत जो सुदर्षन द्वारा लिखित थी, वह बहुत ही प्रेरणादायक कहानी थी।
थोड़ा बड़ा होने पर एक वो भी दौर आया जब काॅमिक्स का जादू अपने जोरों पर था। वास्तव में पढ़ने का वास्तविक षौंक तभी से जागा और षब्दों को पढ़ने और समझने की गति ने भी तेजी पकड़ी। नागराज, डोगा, सुपरकमाण्डो धु्रव, भोकाल, बांकेलाल, पिंकी, रमन, हवलदार बहादुर, चाचा चैधरी के रोमांचक किस्सों से भरी वह काॅमिक्स का मजा ही कुछ और था। एक ही दिन में दो-तीन काॅमिक्स को पढ़ डालना, उस समय का सबसे बड़ा षुगल था। या यूं कहा जाये, काॅमिक्स की एक लत सी हो चुकी थी जो जब भी खाली समय मिलता, उसे ही दे डालते। जिसका स्थान आज मोबाईल ने ले लिया है और बच्चे षब्दों की दुनियां को छोड़ वीडियो की दुनियां में खोने लगे हैं जहां वह मानसिक रूप से षब्दों से चूक जाते हैं।
आगे चलकर कई ऐसी लेखकों के लेख हैं जो वाकई पढ़ने लायक हैं जैसे मुंषी प्रेमचंद, रविन्द्रनाथ टैगोर, खुषवंत सिंह, अमृता प्रीतम आदि। यदि वास्तविक धरातल पर देखा जाये तो हम उस पुस्तक को पहली पुस्तक कह सकते हैं जिसके कारण आपके जीवन में कोई महत्वपूर्ण बदलाव आया हो या जिसने आपके सोचने का तरीका बदल दिया हो और वह भी समय आया जब अचानक एक ऐसे दार्षनिक की पुस्तक हाथ लगी जिसे पढ़कर, वास्तव में सोचने का तरीका ही बदल गया और उनका नाम आचार्य रजनीष या ओषो है। इसकी भी बहुत ही रोमांचकारी कहानी है कि कैसे मुझे उनकी एक पुस्तक या मैगजीन रेलवे स्टेषन के एक स्टाॅल में लगी दिखी, जिसकी विशय सूची देखकर ही ऐसा लगा कि अवष्य ही खरीद कर पढ़ना चाहिए। जीवन के अनेकों ऐसे पहलू, ध्यान, आध्यात्म और स्वयं की खोज के बारे में अनूठे तरीके से जिस प्रकार के षब्द ओषों ने प्रयोग किये हैं, वह वाकई अत्यन्त ही जादुई से हैं। जिन्हें पढ़कर या सुनकर पाठक और श्रोता को सदा ही ऐसा लगता है मानों वह उसी के प्रष्न हैं, जिनके उत्तर इतनी सरलता से ओषो ने दिये हैं। वह अक्सर सभी को मालूम है फिर भी न जानते हैं, न पहचानते हैं। उसके बाद एक के बाद एक अनेकों पुस्तकें खंगाल डाली, वह एक दषक ऐसा था, जब ओषों की कृतियों ने अपने षब्दों से बाहर निकलने ही न दिया। उसके बाद कई अन्य दार्षनिकों और लेखकों की पुस्तकें पढ़ने का भी अवसर प्राप्त हुआ।
वस्तुतः यदि देखा जाये तो पुस्तकें और उनके भीतर छिपे ज्ञान का कोई अन्त नहीं, यह तो व्यक्ति के अंतिम समय तक अनवरत चलने वाला एक पहिये की तरह है। जो जब तक चलता रहता है, व्यक्ति भी संतुलन में रहता है। ऐसे ही आप सभी का ज्ञान अनवरत चलता रहे, इसी षुभकामना के साथ,
जय हिन्द-जय भारत।