जितना भी शिव को जानों वो कम ही होगा। यह कहानी है एक ऐसे आदमी की जो जानना चाहता है, देखना चाहता है और सत्य को महसूस करना चाहता है। पुरानी चल रही धारणाओं का पक्षधर भी है और विरोधी भी। पक्षधर इसलिए क्योंकि अनेकों व्यक्तिगत अहसासों से इतना तो समझ चुका है कि कुछ तो है जो असीम है, अनन्त है, आनन्दमयी और दुर्लभ भी। विरोधी इसलिए यह सब मात्र अहसास भर हैं। मात्र अहसास को किस प्रकार सत्य मान ले, वह सब एक धोखा भी तो हो सकता है या फिर कल्पना.....
शिव रात्रि की सुबह बाहर से आती आवाजों ने अनिकेत की नींद खोल दी, तब उसे मालूम पड़ा आज तो शिव रात्रि है। बम-बम भोले के जयकारे और डीजे पर बजते तेज संगीत ने उसमें उत्सुकता भर दी और कुछ रोमांच। तेज आवाज का असर तो मन पर पड़ता ही है। कुछ सोचकर अनिकेत वैसे ही बाहर निकल गया और रोज की भांति अपनी रायल इनफिल्ड बाहर निकाली। जिसे बढ़िया तरीके से माडिफाइड कराया हुआ था। रहस्य और रोमांच के शौकिन लोगों को अक्सर दमदार और ताकतवर चीजें ही पसन्द आती हैं। फिर चाहे वो किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो। गाड़ी हो, घोड़ा हो या फिर कोई व्यक्ति। उनकी पसन्द का बस एक ही पैमाना रहता है, सबसे बुलन्द और ताकतवर....
सुहाना सफर और ये मौसम हसीन गाना मन ही मन गुनगुनाते हुए अनिकेत सड़क के भीड़ भरे नजारे लेता जा ही रहा है कि अचानक उसे कोई जानी पहचानी खुषबू पेट में गुदगुदी करने लगी। अपने गुलफाम मियां के पराठों को कौन भूल सकता है भला। बाइक स्टैण्ड पर लगाते हुए अनिकेत ढाबे में घुसा। प्रवेष द्वार में ही बड़ी सी कढ़ाई लगाकर मोटे तगड़े शरीर के मालिक गुलफाम मियां बड़ी तेजी से समोसे तल रहे थे। एक तरफ छोटा सा लड़का चाय बना रहा था और दौड़-दौड़ ग्राहकों को चाय नाष्ते का सामान भी बांट भी रहा था। जिसे सब छोटू के नाम से जानते थे। चैदह साल का छोटू जिसके पिता एक मजदूर थे। सात बच्चों में से अपने सबसे छोटे बेटे को अभी हाल ही में गुलफाम मियां की दुकान में लगाया था। रिष्ते में तो गुलफाम मियां छोटू के मामा लगते हैं। लेकिन वे भी किसी कंस या शकुनि मामा से कम नहीं। उनसे तो भाई दो ही कदम आगे होंगे। कुछ तो अंतर होगा ही द्वापर युग के कंस-षकुनि मामाओं में और कलयुग के आधुनिक मामाओं में....! ये सब बातें होना तो भारतवर्ष में आम बात है, जिसे छोटा-मोटा जानकर नजरअंदाज करते हुए सभी ग्राहकों की भांति अनिकेत ने छोटू को बुलाया और पराठे और चाय का नाष्ता कर जैसे ही बाहर निकला अचानक उसके सामने से एक भभूतधारी साधू आ खड़ा हुआ। पूर्ण शरीर में भस्म लगाये, बिना वस्त्रों के, लम्बी जटाएं धारण किए एक हाथ में कमण्डल और दूसरे कंधे में एक थैला लटकाये बड़े ही आत्मविष्वास के साथ आंख से आंख मिलाकर कहने लगे। बच्चा, थोड़ा रूक, मुझे तेरे बारे में कुछ बताना है। एकाएक यह सब सुनकर अनिकेत रूक गया। उसका रूकना तो वाजिब ही था। आखिर इतने आत्मविष्वास से बात करने वाले में कुछ तो बात होगी।
अनिकेत - बताइये बाबा, क्या चाहते हैं आप?
बाबा - हम कुछ नहीं चाहते, बस बताना चाहते हैं कि जल्द ही तुम्हारे जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव आने वाला है। तुम्हारे वर्षों का सपना जल्द ही पूर्ण होगा।
अनिकेत - कौन सा सपना बाबा, मैं समझा नहीं।
बाबा - यही कि जल्द ही बहुत धन तुम्हारे पास आयेगा और एक ऐसी कन्या से विवाह होगा जो तुम्हारे लिए बहुत ही भाग्यषाली होगी और ध्यान से सुन तेरी दो सन्तानें होगी एक लड़की और एक लड़का।
अनिकेत - लेकिन बाबा, मैं तो विवाह ही नहीं करना चाहता। तो फिर ऐसा कैसे होगा?
बाबा - बच्चा, विवाह तो तेरा अवष्य होगा। यह तेरी मस्तक की रेखाओं में लिखा साफ दिखाई पड़ रहा है। अपनी बड़ी और लाल आंखों को और बड़ा करके बाबा ने कहा।
अनिकेत - थोड़ा सा डरते हुए, बाबा एक बात पूछनी थी, क्या पूछ सकता हूं?
बाबा - मन ही मन खुष होते हुए, क्यों नहीं जरूर पूछो।
अनिकेत - आप कब से और किसकी साधना कर रहे हैं?
बाबा - गुर्राते हुए, पिछले 20 वर्षों से कड़ी साधना कर रहे हैं हम। नागा हैं हम नागा। नागाओं के बारे में सुना नहीं क्या? फिर अपना लिंग दिखाते हुए कहने लगे। देखो इसे, उस पर कुछ हुक जैसा लगा हुआ था जिसे दिखाते हुए कहने लगे। देखो इसे, जरा छूकर देखो।
अनिकेत भरे बाजार में ऐसी बात सुनकर बात बदलते हुए बोला - वो सब तो ठीक है, मैं तो बस एक चीज चाहता हूं, क्या वो मिल सकती है?
बाबा - क्या चाहिए तुम्हें, बताओ।
अनिकेत - मुझे महाकाल या महाकाली के दर्षन करने हैं, क्या करवा सकते हो?
बाबा - इतना आसान नहीं है, कड़ी साधना करनी पड़ती है। अच्छा एक काम कर, बाबा को कुछ दान दे दे, भोलेनाथ तेरी हर मनोकामना पूर्ण करेंगे।
अनिकेत - बाबा को नजरअंदाज करते हुए अपनी बुलेट स्टार्ट कर बड़ी तेजी से निकल गया। पीछे से बाबा न जाने क्या-क्या बुदबुदाते हुए आगे चलने लगा।
अनिकेत मन ही मन यह सोचने लगा कि आखिर क्या मिलता है इन्हें यह सब करके। कुछ भी न जानते हुए फिर भी सब कुछ जानने का दावा। आखिर क्या प्राप्त हुआ इन्हें इस प्रकार अपने जीवन से। घर भी छोड़ा, परिवार भी छोड़ा, धन छोड़ने का दावा तो किया लेकिन छूटा नहीं। न ही रोटी, कपड़े और मकान की मूल भूत आवष्यकता को ही छोड़ सके। कपड़ा शरीर को सर्दी, गर्मी से बचाता है जिसका स्थान भभूत ने ले लिया। सर्दी और गर्मी से तो भभूत के कारण बच गये किन्तु खाने की लिए रोटी और सोने के लिए जमीन तो चाहिए ही, उसे कैसे छोड़ा जा सकता है और क्या सबकुछ छोड़ देने से ही सत्य प्राप्त हो सकता है तो फिर ऐसे तो कितने ही महापुरूष हो चुके हैं जिनकी बड़े जोरो शोरों से पूजा की जाती है, उन्होंने तो कुछ न छोड़ा बल्कि राजपाट और परिवार का पूर्ण सुख प्राप्त किया। वास्तव में सत्य क्या है? क्या जिसे सत्य प्राप्त होता है, उसमें बाहरी शारीरिक पटल पर बदलाव होता है या कोई आन्तरिक पटल पर। यह सब सोचते हुए अनिकेत उस स्थान पर पहुंच गया जहां षिवरात्रि के मेले की झांकिया निकल रही थी। यही सब तो देखना था, कुछ मनोरंजक और मजेदार।
सड़क में झांकियां निकलने के कारण यातायात का जाम होना तो बनता ही है। पुलिस वाले बीच में व्यवस्था सही बनाये रखने की पूरी कोषिष करते दिख रहे थे लेकिन वहां पुलिस का क्या काम, जहां राम भरोसे हिन्दुस्तान। पार्किंग में गाड़ी खड़ी करके अनिकेत झांकियां देखने पहुंचा। तरह-तरह के भेषों में बहरूपिये देवी-देवताओं का रूप धारण कर स्वांग कर रहे थे। जो देखने में काफी रोचक और मजेदार था। षिव और पार्वती का नृत्य देखा, फिर दूसरा, षिव परिवार जिसमें षिव, पार्वती, गणेष, कार्तिकेय, नंदी और पीछे नाचते कूदते बहुत सारे अन्य गण जो भूत-पिषाच और राक्षसों का रूप धारण किये थे। जिन्हें देखकर कुछ छोटे बच्चे डरकर रो रहे थे। थोड़े बड़े बच्चे डरने के बावजूद बार-बार उनको छेड़ने के रोमांच से बाज नहीं आ रहे थे। बचपन भी क्या कमाल के वो पल हैं, वह जो करना चाहते हैं, कम से कम कर तो लेते ही हैं। उन्हें न किसी समाज की परवाह, न किसी धर्म का बंधन। तभी तो कहते हैं बच्चे मन सच्चे। हां, थोड़े अकल के कच्चे जरूर होते हैं, लेकिन जैसे भी होते हैं, अच्छे ही होते हैं। बिना किसी द्वेष भाव के निर्मल और निच्छल। इन सबके पीछे तरह-तरह की वेषभूषा धारण किये अनेकों प्रकार के बाबाओं की टोली आने लगी। कुछ तो जरूरत से अधिक साफ-सुथरे थे तो कुछ अति के गंदे। अनिकेत समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसा क्यों है, यह कथित धार्मिक लोग अति ही करते हैं। प्रत्येक कार्य आवष्यकता से कहीं अधिक जिसका कोई औचित्य ही नहीं और न ही किसी भी सामान्य बुद्धि रखने वाले इंसान की समझ में आने वाला निरर्थक विषय। मात्र अति को देखने का जो सुख सामान्य व्यक्ति को मिलता है, जो वह स्वयं कभी भी नहीं करना चाहता। दूसरों को वह सब मूढ़ताएं करता देख बिना सोचे समझे उन्हें महापुरूष समझने लगता है। जबकि वह वास्तव में जानता है कि इसका कोई भी अर्थ नहीं। परन्तु बचपन से समाज और परिवार द्वारा रोपित अंधसंस्कार जो सदैव व्यक्ति को प्रष्न पूछने से रोकते हैं। संदेह करने को विद्रोह समझते हैं। बच्चों के छोटे-छोटे सवालों के सही जवाब देने के बजाय उन्हें काल्पनिक परी कथाएं और डरावनी बातों सुनाकर कल्पनालोक में ही विचरण करने देते हैं। इसलिए वही बच्चा बड़ा होते-होते परी कथाओं से बाहर निकलकर वास्तविक जीवन में भी कल्पना लोक में विचरण करता रहता है। मात्र अन्तर यह होता है फिर वह बड़ों लोगों के सबसे पसन्दीदा पात्र ईष्वर, देवी-देवता, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, पुर्नजन्म और मृत्यु, अच्छे कार्य करने पर स्वर्ग की लालच और बुरे कार्य करने पर नर्क की कठोर सजाओं का भय। यह सब किसी परी कथाओं से कम नहीं। जहां अच्छी परीयां भी होती हैं और बुरी भी।
यही सब सोचते-सोचते अनिकेत को भूख लगने लगी। खाना याद आते ही सारे गहन चिन्तन मनन हवा हो गये। एक गहन विचारक होने के साथ-साथ अनिकेत का भोजन प्रेम जग जाहिर है। बिन भोजन भजन न होत है। फिर भोजन के मामले में तो बेषर्म हो जाना ही अच्छा है। शर्म की तो भाई भूखे ही रह जायेंगे और सारा ज्ञान-ध्यान धरा का धरा रह जायेगा। षिवरात्रि के मौके पर फिर क्या भोग लगाया जाये। शाकाहारी और मांसाहारी का विचार अनिकेत के लिए व्यर्थ ही समझो। क्या खाना है और क्या नहीं, इसमें तो स्वतन्त्रता होनी ही चाहिए। वैसे तो स्वतन्त्रता है ही लेकिन मानसिक पटल पर आज भी आमजन का यह हाल है कि बेसिर पैर की कई बातों को बस यूं ही मान लेने हैं, बिना कुछ विचारे। तभी तो धर्म के नाम पर कैसे बाबा और उनके चेले अपना-अपना उल्लू सीधा करते हैं और भोली-भाली जनता भी कुछ कम नहीं है, अपना उल्लू सीधा करने में। खाने-पीने का मन तो स्वयं का होता है पर उस की पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर नहीं लेना चाहते। इसलिए भगवान सबसे बढ़िया जुगाड़ है, कुछ भी करो। गले भगवान के डाल दो। मांस का स्वाद चखना तो स्वयं है, बेचारे भगवान को बीच में यूं ही डाल देते हैं। भाई, मांस खाने के लिए हत्या तो करनी पड़ती है और फिर उसके पाप का डर, पापी बनने का डर, नर्क की कठोर सजा का डर और यह डर कि आखिर लोग क्या कहेंगे तो क्यों न ऐसी तिकड़म लगाई जाये कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। क्यों न हत्या इस प्रकार से की जाये कि पाप ही न लगे बल्कि किसी पुण्य कार्य के लिए किया गया बलिदान बन जाये। वाह क्या आईडिया है, हत्या भी की, मांस भी खाया और पाप भी नहीं लगा। मंदिरों में बलि हो या ईद की कुर्बानी, भाई नाम में क्या रखा है, जान तो जानवर की जानी ही है और अंत में चतुर मानव के पेट में। भगवान का तो कुछ अता पता नहीं कि वो है कहां? बस सीधी साधी बात है - राम नाम जपना, पराया माल अपना। इससे अच्छा तो यही होता कि किसी देवी-देवता के सिर अपने पाप का घड़ा फोड़ने से अच्छा उसकी जिम्मेदारी खुद पर लेते और जो मन करता करते। तभी तो एक आजाद सोच वाले कहलाने का हक रखते। यहां क्या बकरा का मांस तथा भैंसा का मांस भारी शाकाहारी भोजन है और गाय घोर मांसाहारी। क्या यह इंसानों का धर्म के नाम पर दोहरी मानसिकता नहीं है कि एक जीव की हत्या को पाप समझते हैं, वहीं दुसरे जीव की हत्या से उनके मनोकामना पूर्ण होते हैं तथा देवी खुश होती है? क्या भोले बाबा को बकरा और भैंसा का मांस, जो कि शाकाहारी होता है, बहुत पसंद है? अगर औसत दर्जे की भी समझ इनसान को है तो वह सही गलत परम्पराओं को धर्म के नाम पर बढ़ावा नहीं देगा, पर स्थिति उससे भी बदतर लगती है। यह सोचकर अनिकेत मांस का ही स्वाद लेने चला गया कि चलो कोई बात नहीं अपने भोले बाबा को तो सभी स्वीकार्य है। सभी प्रिय हैं फिर चाहे वो देवता हों, मनुष्य या फिर दैत्य। मांस खाओ या फिर शाख, मतलब तो पेट भरने से है। जब षिव को स्वयं ही धतूरा पसंद है तो क्यों न आज षिवरात्रि के मौके पर मटन के साथ धतूरा पान ही किया जाये। वैसे इससे पहले अनिकेत ने कभी धतूरे का प्रयोग नहीं किया था लेकिन स्वभाववष किसी से परहेज भी न था। अपने नाम को सार्थक करता हुआ वो सीधे मंदिर के प्रांगण में पहुंचा जहां भांग मिली ठंडाई बंट रही थी। दो-तीन गिलास ठंडाई के अंदर जाते ही अनिकेत के ज्ञान के दीपक जलने लगे। जैसा कि भांग की सबसे बड़ी यही खासियत है कि जो आपके भीतर चलता होगा, वह और अधिक गहन रूप ले लेगा। खाओगे तो खाते ही रह जाओगे। हंसोगे तो हंसते ही रहोगे। इसी प्रकार यदि एक बार किसी गहन विचार या ध्यान में डूबे तो कम से कम छोटे-मोटे दार्षनिक तो बन ही जाओगे। इसलिए भांग को षिव के साथ जोड़ा गया है। अर्थात गहन ध्यान की अवस्था। लेकिन इस अतिष्योक्ति से यह मत समझ लेना कि नषा करना बहुत अच्छा है! बिल्कुल नहीं। काल्पनिक दुनियां के बाहर भी बहुत कुछ है। जितनी लूट, हिंसा, धूर्तता और ठगी इन धार्मिक लोगों ने फैलाई होगी, शायद ही दुनियां में किसी ने की हो। धर्मवाद के नाम पर लाखों-करोड़ों की हत्या कर दी जाती है और वो भी बिल्कुल पाप रहित। वाह क्या बात है, कितनी चालाकी भरी धूर्तता!
अभी तक अनिकेत को कुछ सूझ नहीं रहा था। लेकिन दवा के अंदर जाते ही उसने अपने एक मित्र जाॅन को बुलाया जिससे कभी-कभी वह अनेकों मुद्दों पर बात करता ही रहता था। जाॅन अनिकेत से थोड़ा अलग था। पूरी तरह नास्तिकता से भरा और आक्रोषित। आक्रोषित होने का कारण समाज में व्याप्त अंधविष्वासपूर्ण धारणाएं जिनका न तो कोई वैज्ञानिक तथ्य से कोई रिष्ता है और न ही किसी प्रकार के समाज के कल्याण से। अपनी पुरानी जगह जहां पर दोनों अक्सर मिला करते थे। वहां जाॅन और अनिकेत मिले। कुछ सामान्य बातचीत के बाद जाॅन समझ गया कि आज अनिकेत का मन कुछ दर्षन सुनाने का है तो क्यों न इसको सबक सिखाया जाये। इस पर जाॅन व्यंग्यपूर्ण लहजे में अनिकेत से बोला अब बात शुरू की ही है तो यह भी बड़ी दूर तक जायेगी। जिन्हें तुम धार्मिक बोलते हैं इनके कुछेक कारनामों का उल्लेख करना तो बनता ही है।
जाॅन अपनी बात प्रारम्भ करते हुए बोला। भाई, एक कहावत तो तुमने सुनी ही होगी - गन्दा है पर धन्धा है....
दुनियां में करने को तो एक से एक धन्धे हैं, परन्तु सबसे पुराना, कामयाब और सबसे कम लागत का बस एक ही धन्धा है जो बड़े आराम से आज तक चल रहा है और वो है भगवानगिरी का धन्धा। जिसमें न हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा।
भगवान को किसने देखा? मैंने तो नहीं देखा और तूने भी नहीं। हाँ इन्सान को जरूर देखा है और उसके अनेकों कारनामें भी देखें हैं। जिसमें सबसे बेहतरीन कारनामों की एक मिसाल है, भगवान। लेकिन कमाल तो तब हो गया जब लोग उसे पुरूष नहीं, महापुरूष मानने लगे और तब प्रारम्भ हुआ धर्म और भगवान का खेल। जिन्हें कुछ भी काम धन्धा न करके अकूत धन संपदा कमाने के साथ-साथ महानता प्राप्त करने का भी मन होता है, वह पुरूष से महापुरूष बन जाता है। कभी वह स्वयं को कृष्ण का अवतार बताता है तो कभी षिव का, तो कोई अपने को ईष्वर कहलवाता है। कुल मिलाकर खोजने बैठें जितनी पागलपन भरी बेतुकी बातें इन सबने कही हैं, कोई भी सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति उसे नकार देगा।
अनेकों महापुरूषों ने पहले तो स्वयं को ईष्वर का सेवक बताया, परन्तु जैसे-जैसे समय बीता, वह बड़ी चालाकी से सेवक से स्वामी बन बैठे। उसके बाद प्रारम्भ हुआ असली भगवानगिरी का खेल। जो कुछ अल्पज्ञानी थे, उन्होंने पुराने ग्रन्थों से उधार लेकर एक नया खिचड़ी ज्ञान जनता के सामने परोस दी। धन-दौलत-षोहरत और इज्जत का चस्का जिसे एक बार लग जाये, फिर वो कहां छूटता है।
इन कथित भगवानों में कुछ ऐसे भी रहे जो शब्दों के जादूगर थे। घुमा फिरा कर किसी भी बात को सत्य सिद्ध करना इनके लिए चुटकियों का खेल था। कैसा भी सवाल हो, सबका जवाब मिल जायेगा इनके पास। मन मोह लेने वाली दार्षनिक बातें किसी गहरे सम्मोहन से कम नहीं होती। सब कुछ मनोविज्ञान का खेल है। किसी को शरीर से गुलाम बनाना हो तो उसके दिमाग को गुलामी में बांधना आवष्यक है। जिससे कोई भी बड़ी आसानी से हर वो काम करने लगता है जिसे वह करना नहीं चाहता। वास्तव में देखा जाये तो सबसे बड़ी गुलामी वर्तमान में प्रचलित धर्म ही हैं। यही सारी समस्याओं की जड़ हैं। ऊपर से देखने पर सभी अपने-अपने धर्मों की ढपली बजा रहे हैं, परन्तु यदि वास्तव में देखा जाये तो अपने ही मन को टटोल कर देखो। आप कितने धार्मिक हैं। कितनी ही ऐसी बातें होगी आपके कथित धर्म में, जो आप करना नहीं चाहते, परन्तु फिर भी करते हैं, न जाने क्यों? यही तो है मानसिक गुलामी। इसमें अधिकतर सभी शामिल हैं। खुलकर बोलना तो सभी चाहते हैं, खुलकर करना तो चाहते हैं और खुलकर इंकार भी करना चाहते हैं। परन्तु नहीं करते। कभी सोचा है, ऐसा क्यों? यही तो एक ऐसी बात है जो खुलकर सोचने से इंकार करती है। यही तो है मानसिक गुलामी, जिसकी जंजीरों से हर कोई बंधा है। तभी तो चाहकर भी अपनी बात नहीं कह सकता।
मैं साधू सा आलाप कर लेता हूं।
मंदिर में कभी जाप कर लेता हूं।
मानव से देव बन न जाऊं कहीं,
यह सोचकर कुछ पाप कर लेता हूं।
मैं पाप के अंजाम से अंजान नहीं,
अगर मैं पाप न करूं तो इंसान नहीं।
निरर्थक धमकियों से मुझे डर जाना नहीं आता,
मुझे चीखना तो आता है,
मगर डरकर चुप रह जाना नहीं आता।
इसलिए खुली चुनौती से मैं पाप करता हूं।
कुछ मन मोह लेने वाली दार्षनिक बातों के उदाहरण पेष करता हूं कि कैसे व्यक्ति शब्दों में उलझ जाता है। जैसे कि दर्षन में सबसे अधिक लोकप्रिय प्रष्न है कि - मैं कौन हूं? क्या मैं एक आत्मा हूं या एक शरीर। हमने स्वयं को अब तक कितना जाना है। वैसे मैं हूं कौन? क्या एक प्रतिबिम्ब? जिसे हमने आज तक मात्र एक दर्पण में ही तो देखा है। इसका अर्थ यह हुआ जिसे हमने अभी तक मात्र एक प्रतिबिम्ब ही जाना है। क्या हम प्रतिबिम्ब हैं? क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर हम हैं कौन? शायद दुख या सुख होंगे जो हम महसूस करते हैं लेकिन क्या हम शरीर हैं? शरीर को ही तो दुख और सुख का भान होता है। लेकिन दुख और सुख का अहसास मन करता है तो क्या हम मन हैं? लेकिन मन में अच्छा और बुरा भाव है। तो क्या मैं अच्छा हूं? लेकिन मुझे तो नहीं लगता कि मैं अच्छा हूं। इसका अर्थ यह हुआ कि मैं बुरा हूं। तो क्या मैं बुरा हूं? नहीं यह भी सच नहीं कि मैं बुरा हूं। हां, यह दुनिया ही बहुत बुरी है।
अंधविष्वास एक ऐसी बीमारी है जिसे यदि एक बार लग गई तो फिर इससे पीछा छुड़ाना थोड़ा मुष्किल जरूरत होता है लेकिन जरा अकल की बत्ती जला ली जाये तो अंधविष्वास का अंधेरा फुर हो जाता है। अंधविष्वास भी ऐसे-ऐसे जिसके बारे में सबको पता है कि ये सब बेकार की बाते हैं लेकिन फिर भी अंतकरण में जो बात अपनी जड़ें जमा चुकी हैं उसका क्या किया जाये। अक्सर मैने देखा है जब बिल्ली किसी का रास्ता काट जाती है तो कई लोग वहीं रूक जाते हैं कि उनसे पहले कोई अन्य व्यक्ति उस रास्ते से निकल जाये और उसकी बला उस पर लग जाये। यह कहां की इन्सानियत है भाई, खुद तो बच गये और दूसरे पर डाल दी मुसीबत। बहुत लोग पूरे सप्ताह जमकर नाॅनवेज खाते हैं लेकिन मंगलवार को परहेज। पाप धोने का अच्छा तरीका निकाला है। छः दिन जमकर खाओ और सातवें दिन घण्टी बजाकर सब पाप धो लो। भाई, पाप किया है तो उसकी जिम्मेदारी खुद पर लेना सीखो। कभी तो मन को ये भी समझाओ -
हमारे अंधविष्वास के कारण ही तो भगवानगिरी का धन्धा जोर शोर से चलता है। पाप की हीनभावना और पुण्य करने का जबरदस्त दिखावे का लोभ और पाप से मुक्त होने का शार्टकट रास्ता भगवाधारी कथित भगवानों की दुकानें बड़ी मस्त चलाती हैं। कुछ तुक्के मारकर और कुछ सामान्य मनोविज्ञान की समझ पर यह बाबा पुरूष से महापुरूष बन जाते हैं। फिर यह तरह-तरह से जनता को मूर्ख बनाकर उनका तन-मन-धन सब लूटते रहते हैं।
अपनी बात को बढ़ाते हुए जाॅन बोला - चलो तुम्हें इन कथित भगवान बाबाओं के प्रकार बताता हूं।
बाबाओं के प्रकारः-
मुख्यतः आजकल बाजार दो तरह के बाबा प्रचलित हैं। पहले तो वह जो पूर्ण कर्मकाण्ड में विष्वास रखते हैं। जैसे पंडित, पुजारी, मौलाना, पादरी इत्यादि। यह सभी अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं के मापदण्ड के अनुसार ही चलते हैं। एक खास वर्ग इनका केन्द्र होता है और कमाई की यदि बात करें तो लाखों में नहीं बल्कि करोड़ों का खेल चलता है। सोना-चांदी और असीम धन-सम्पदा, भूमि दान स्वरूप मिलती ही है। जिसे प्राप्त करने का इनका मुख्य बिन्दु यह होता है कि दान का धन गरीबों पर खर्च किया जाता है। गायों को संरक्षण दिया जाता है। अनाथ बच्चों और वृद्ध लोगों की सहायता की जाती है। गरीब कन्याओं का विवाह किया जाता है। ऐसी अनेकों बातें कहकर करोड़ों का दान सागर स्वरूप प्राप्त कर उसमें से कुछ लोटे भर धन गरीबों पर भी लुटा दिये जाते हैं ताकि भ्रम बना रहे कि कुछ अच्छा कार्य हो रहा है। लेकिन जनता से ठगा हुआ यह धन की अधिकतम राषि तो मात्र फिजूलखर्ची और शानोषौकत पर ही खर्च कर दी जाती है। तन पर कोई कपड़ा न पहनने वाले बाबा एसी से सुसज्जित पांच तारा कमरे का सुख प्राप्त करता हैं। दोहरे व्यक्तित्व के साथ बड़े आराम से जनता को अपनी लच्छेदार प्रवचनों के माध्यम से इनका काम चलता रहता है। इसलिए अंधश्रद्धा को भूल एक बार जरूर यह सब राजनीति निष्पक्ष रूप से स्वयं देखें और समझे। आपको स्वयं ही ज्ञान हो जायेगा कि कौन कितने पानी में है।
दूसरे प्रकार के बाबा पहले वालो से कुछ अधिक चतुर हैं। उनका कोई खास वर्ग विषेष नहीं होता। जिन्हें हम अक्सर आध्यात्मिक शब्द द्वारा जानते हैं। यह बाबा सभी धर्मों के ग्रन्थों का अध्ययन करके, उन सभी से थोड़े-थोड़े ऐसे अंष अपने प्रवचनों में डालते हैं जिससे उनका स्वयं का स्वार्थ सिद्ध होता हो। जैसे कि कहा गया है - अधूरा ज्ञान शैतान का घर। अधूरी जानकारी अवष्य ही अर्थ का अनर्थ कर देती है। इस अनर्थ को करने में यह ज्ञानी बाबा अत्यन्त माहिर होते हैं। गुरू के पद को ईष्वर तुल्य बताकर एक प्रकार से स्वयं को ईष्वर ही घोषित कर देते हैं। फिर जनता का तो क्या कहना!
इसी विषय पर हिटलर ने भी कहा था कि यदि कोई झूठ बार-बार जोर-जोर से दोहराया जाये तो एक समय पर जनता उसे सच मान ही लेती है। यह एक मानव मनोविज्ञान है। यही कार्य यह सभी धर्मगुरू सबको बचपन से घुट्टी पिला देते हैं, जो अक्सर हम बिना शोध किये, बिना कोई विचार किये बस मान लेते हैं। यही संस्कार जो बचपन से परिवार और समाज द्वारा बिना हमारी किसी इच्छा के हमारे मन में थोप दिया जाता है। स्वर्ग-नर्क की दुनियां, देवी-देवताओं का खुष होकर वरदान देना और क्रोध आने पर दण्ड देना, फरिष्ते, जन्नत, दोजख, भूत-प्रेत, जिन्न-जिन्नात, राक्षस और शैतान। यह सारी बातें यह कथित धर्मगुरूओं की कुंजी है। इसी के सहारे इन सबका धन्धा चलता है। क्योंकि इनमें से कई बातें हमें लुभाती हैं, कई बातें डराती हैं। जिस कारण हम वह सब करने को तैयार हो जाते हैं जो हम करना नहीं चाहते। वास्तव में यही तो अंधविष्वास है जिसका अस्तित्व ही नहीं, उसे भी मानना।
इतनी बातें सुनने के बाद अनिकेत से रहा न गया। फिर वह बोला, तुम्हारी बातें काफी हद तो सच हैं। जिनमें अधिकतर बातों से मैं सहमत हूं लेकिन कुछ बातों से नहीं। ईष्वर है या नहीं यह तो मैं भी नहीं जानता। लेकिन तुम्हारी तरह नकारता भी नहीं। बहुत बातों का विरोध तो है कि बागी नहीं। मैं कौन हूं, बस इतनी सी खोज है। जीता हूं, अपनी मौज में और मरता भी हूं अपनी मौज में क्योंकि मैं अनिरूद्ध हूं। जिसका घर सम्पूर्ण विष्व है। जो न किसी में लिप्त होता है और न ही नकारता है। मेरा तो बस इतना ही कहना है कि तुम भी सही और मैं भी सही। इससे क्या फर्क पड़ता है। अपनी खोज तो चलती ही रहेगी आदि से अंत तक....