प्रत्येक मनुष्य का अपने जीवन में मात्र एक लक्ष्य होता है, जीवन को पूर्ण रूप से सुखमय बनाना। यह प्राकृतिक भी है। जन्म लेने के साथ ही प्राकृतिक रूप से मनुष्य सुख की आकांषा को लेकर ही जन्म लेता है। मां की ममतामयी गोद में सर्वप्रथम बच्चे को सुख का अहसास होता है। भूख लगने पर तत्काल बच्चे की इच्छा पूर्ण करने हेतु माँ तत्पर रहती है। खाने-पीने से लेकर प्यार-दुलार जैसी खुषियों का अहसास मनुष्य वास्तव में सर्वप्रथम माँ की गोद में ही करता है और जैसे-जैसे वह बड़ा होने लगता है, उसकी खुषियों का दायरा धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। जिससे बचपन की मासूमियत में धीरे-धीरे और भावों का मिश्रण होने लगता है। फलस्वरूप तब उसे उसकी इच्छा संबंधी वस्तुएं तो मिलती रहती हैं जिनकी वह अभिलाषा करता है परन्तु बचपन की वह मधुर खुषियां जो छोटी-छोटी चीजों से ही प्राप्त हो जाया करती थी, वह अब बड़ी और बेषकीमती वस्तुओं से भी प्राप्त नहीं होती। इसका क्या कारण हो सकता है? क्या मनुष्य की खुषियां मात्र बचपन में ही होती है, जो बड़े होने के साथ-साथ मिटने लगती हैं। या फिर हममें ही कोई ऐसी कमी है जिसके कारण हम खुष रहना भूल गये हैं?
जैसा की अक्सर कई लोग अपने बचपन को याद करते हुए कहते मिलते हैं कि बचपन के दिन भी क्या दिन थे। अनेकों कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से बचपन के सुहानों पलों को याद किया। कई गायकों ने बड़े ही मधुर गीत गाये। मषहूर गजल गायक जगजीत सिंह ने बचपन पर गजल गाया था जिसकी मधुर ध्वनि आज भी मस्तिष्क पटल पर गूंजती है। गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे - ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो तुम मेरी जवानी, मगर कोई लौटा दे वो बचपन का सावन, वो कागज की कष्ती, वो बारिष का पानी। वाकई बचपन में लगभग बहुत लोगों ने बारिष में कागज की कष्तियां बनाकर चलाई होंगी। वो कागज के हवाई जहाज बनाकर हवा में उड़ाना। अन्य छोटे बहन-भाईयों के साथ कई प्रकार खेल खेलना, कितने खुषगवार होते थे वो पल। जब बड़ी निष्चिंतता के साथ खेला करते थे।
बचपन की उन सपनों की दुनियां से निकल जब वास्तविक दुनियां का सामना होता है तब बड़ी खुषियों के चक्कर में कैसे वह छोटी-छोटी गायब हो जाती हैं, जिन्हें याद करके कवि, गायक और एक आम इंसान तरह-तरह उन खुषियों की बातें करके भी उदास और दुखी होता रहता हैं और यह कहता मिलता हैं - काष! बचपन के वह सुहाने दिन फिर से मिल पाते। जब हम बेपरवाह हो खुषी से नाचा करते थे। अरे भाई! क्या खुषियों का सारा ठेका बच्चों ने ही ले रखा है। बड़े क्यों नहीं हो सकते खुष? बेषक हो सकते हैं। लेकिन सबसे पहले हमें वह सब कारण देखने होंगे, वह सब गुण और अवगुण देखने होंगे, जो बचपन से अब तक हमारे भीतर उत्पन्न हुए। हमें तुलना करनी होगी, हमारे आज और बचपन के उन दिनों की कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि हम खुष रहना भूल गये। क्या कार्य की अधिकता के कारण हम दुखी रहते हैं? जिम्मेदारियां अधिक होने के कारण दुखी हैं? घर-परिवार से दुखी हैं? दोस्तों और अन्य संबंधियों के कारण दुखी हैं? बेरोजगारी के कारण दुखी हैं? इस प्रकार के अनेकों कारण हम अपने दुखों के बताने लगते हैं। लेकिन यदि गौर से अपने भीतर हम एक नजर डालें तो यह सब मात्र हमारे बहाने हैं। बच्चों के पास भी दुखी होने के अनेकों कारण हैं, स्कूल का बोझ, बड़ों का डांटना, मन-मुताबिक सभी सही-गलत वस्तुओं का बड़ों द्वारा न देना, सुबह जल्दी उठाकर स्कूल भेजना, जबरदस्ती पढ़ने के लिए कहना, गंदे बच्चों के साथ खेलने से मना करना इत्यादि बहुत से कारण बच्चों के पास भी है कि वह दुखी हो सके। किन्तु इन सबके बावजूद भी वह खुष रहते हैं। जिसका एकमात्र स्पष्ट कारण है अहं भाव की कमी।
जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती जाती है अहं भाव अर्थात अहंकार की भावना प्रबल होने लगती है। इच्छाओं का होना इतना महत्व नहीं रखना। इच्छित वस्तु को प्राप्त कर व्यक्ति खुष हो सकता है। लेकिन अधिक और अधिक पाने की भावना व्यक्ति को दुखी कर देती है। जिसके कारण दुखों का उदय होने लगता है। किसी अन्य व्यक्ति की कोई वस्तु पाने की लालसा, आवष्यकता से अधिक संग्रह की भावना। दूसरों के सामने आत्मप्रषंसा की भावना, व्यक्ति को दुखी कर देती हैं। लोभ और अहं भाव व्यक्ति को कभी खुष नहीं रहने देता। यह दोनों भावनाएं बच्चों में बहुत ही कम मात्रा में मिलती हैं। इन भावनाओं का प्रतिषत ही यह निर्भर करता है कि कौन कितना अधिक सुखी और दुखी है। फिर चाहे वह बच्चा हो, बड़ा हो या कोई बुजुर्ग हो। इन भावनाओं को लेकर ही व्यक्ति अपनी और अन्य लोगों की प्रसन्नता का निर्धारण कर सकता है।