जीवन का क्या लक्ष्य है, यह सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है। मनुष्य शरीर की जीवन यात्रा माता के गर्भ से प्रारम्भ होती है और दुनियां में आंखे खोलने के पश्चात पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-व्यापार, घर-गृहस्थी, धन-दौलत के पीछे भागते-भागते कब मृत्यु उसके समक्ष आ खड़ी होती है, उसे पता ही नहीं चलता। मृत्यु को अपने समीप देख लेने पर भी अक्सर मनुष्य को तब भी समझ नहीं आता कि वास्तव में उसका संसार में उत्पन्न होने का उद्ेश्य क्या था? वह मृत्यु को सामने देखकर भी यही विलाप करता हुआ दुखी होता है कि उसने अभी भी इस संसार में संसारिक वस्तुओं के पीछे थोड़ा और भागना है। थोड़ा और इकट्ठा करना है, थोड़ा और संसारिकता की अनन्त दौड़ में दौड़ना है। कुछ समय और मिल जाता, यही दुख उसे पुनः जन्म-जन्मान्तरों के बंधनों में बांधे रखता है। वास्तव में यह दौड़ ही मूल दुख है, जो कभी न समाप्त होने वाली अनवरत चक्र है। इस चक्र को तोड़ बाहर निकल परम सुख को प्राप्त होना ही मानव जीवन का मूल उद्ेश्य है। वह परम सुख ही अन्ततः मोक्ष है जिसके पश्चात समस्त जन्म-मरण की क्रिया और उसके साथ साथ चलने वाली दौड़ जो सदैव अन्त में दुख को ही लेकर आती है। पहले दूर से वह सुख जान पड़ती है किसी रेगिस्तान में दूर से दिखने वाले जलस्त्रोत्र की भांति, लेकिन जैसे ही पास आते हैं, वहां मात्र रेत ही रेत के दर्शन होते हैं और उसके साथ असहनीय प्यास और जला देने वाली गर्मी की तपीश। जिसकी पीड़ा मात्र वही अनुभव कर सकता है जो बहुत लंबे समय से रेगिस्तान में अकेला चलता ही जा रहा हो, उस असहनीय पीड़ा, प्यास और तपीश को सहता हुआ किसी हरेभरे उपवन की तलाश में जहां उसके दुख, तपीश, और प्यास, वहां के मीठे जल स्त्रोत्र और फल दूर कर सकने में सक्षम होंगे।
इसी प्रकार अनन्त जन्मों से मनुष्य इस जीवन चक्र की अगाध गति में मध्य उसी रेगिस्तान के यात्री की भांति ही है जो असहनीय पीड़ाओं को झेलते हुए जीवन यात्रा तय किये जा रहा है। बीच-बीच में कुछ पलों के लिए मीठे जल की कुछ बूंदों से तृप्त होकर उसे ही सुख मानना उसकी बड़ी भूल ही है क्योंकि उसके बाद पुनः वही गर्म और सांसों को रोक देने वाला रेगिस्तान उसे याद करता है, जहां फिर उसे चलना है। बिना की छतरी, जूतों, वस्त्र, भोजन और पानी के। बिना किसी सहारे के, इस जीवन रूपी रेगिस्तान में अन्य कोई सहारा दे भी नहीं सकता क्योंकि कई अन्य पथिक स्वयं एक कदम भर चलने में भी समर्थ नहीं।
जीवन की इस यात्रा में कुछ पथिक ऐसे भी हैं जो पूर्ण वस्त्रों, जूते, टोपी, भोजन एवं जल लिए अपनी यात्रा पूर्ण करने के साथ-साथ अन्य यात्रियों का मार्गदर्शन करते हुए अपने द्वारा संचित जल और भोजन को ही प्रेमपूर्ण भाव से अन्य पर लुटाते हुए चलते हैं और इस बात का ज्ञान कराते हुए चलते हैं कि किस प्रकार वह यह सब करते हैं, और किस प्रकार वह सभी उस जीवन रूपी रेगिस्तान को बड़ी सरलता पूर्वक पार कर सकते हैं। जिन्हें हम गुरू कहते हैं। गुरू का स्थान सबसे ऊंचा इसलिए बताया गया है क्योंकि वह ऐसे यात्रियों का पथप्रदर्शन करते हैं जो जीवन रूपी रेगिस्तान में हार मानकर बैठ चुके हैं, चलने को भी राजी नहीं, हार चुके हैं। करूणा एक सच्चे गुरू का आभूषण हैं। करूणाभाव में आकर वह स्वयं को भी दांव पर लगाने से नहीं चूकते और अपने साथ-साथ अनेकों उन यात्रियों को भी जीवनरूपी मरूस्थल से मुक्त करा उन सुन्दर उपवनों में ले जाते हैं जहां प्रभु की अपार आनन्द उपस्थित है।