किस -किस को बताऊं?
कि मैंने छोडा़ तुमको।
मजबूर किया,
तुम्हीं ने मुझको।
धन लोलुपता तुम्हारी,
और मैं छली गयी,
हम सबको धोखे में रख,
नींव ,बंधन की
झूठ पर धरी गयी।
मेरा मन गंगा सा
कोमल ,निश्छल,
तुम सब डूबे रहते ,
मदिरा में प्रतिपल।
कैसे मैं सामंजस्य बिठाती?
सहती रहती तुम्हारी प्रताड़ना,
न छोड़कर तुम्हें आती?
तुम्हारा अंश,
पल रहा था भीतर,
दिया कभी,
भोजन से कुछ इतर?
परिणाम,
उसने दम,
भीतर ही तोड़ दिया,
एक उसी का था सहारा मुझको,
उसने भी मुझको छोड़ दिया।
नहीं हूं मैं असहाय,
पर नहीं खोलना चाहती,
अतीत के वो काले अध्याय,
जो व्यथित मुझे कर जाते हैं।
तुम्हारे संग बिताये हर क्षण,
बस चुभते और रुलाते हैं।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '