सबको खुश रखना मुश्किल ही नहीं असंभव है, जुमला नहीं हकीकत है!
आज़ादी के बाद सहूलियत और विरासत को बचाने के लिए जो खेल खेला गया वो खेल वोट बैंक के गलियारों से ही गुजर कर कारवां का रूप धारण किया, मगर क्या उस कारवें की ज़रुरत पूरी हुई, सवालिया निशान इसी पर है?
ज़रुरत कभी भी किसी की पूरी नहीं होती, उम्र परिधि पार् कर जाती है और कब्र करीब बुला लेती है! मगर देश की राजनीती ने उसी वोट बैंक के गलियारों को अपना समझ लिया है, मगर क्यों, क्या सत्ता का कोई दूसरा साधन नहीं है?
साधन तो है मगर आसान नहीं है, पनघट की डगर तो है मगर नजदीक नहीं है, दूर की दुरी कौन नापना चाहता है?
देश के राजनैतिक क्षितीश पर जिस नई राजनैतिक शक्ति का उदय कुछ सालों पहले हुआ था और उसका जलवा अभी भी बरक़रार है, कहीं वोट बैंक के गलियारों की अंधी गलियोंमें घूम न हो जाये, इससे सचेत रहना पड़ेगा इतिहास गवाह है?
गलियांरों से गली तक का फ़िल्मी और राजनैतिक सफर गाने के बिना अधूरी प्रतीत होती हुई नजर आ रही है, एक नगमा आप सब के लिए!
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