राजनैतिक दल चंदा और धंधा?
लचर व्यवस्था को लाचार रखने में ही राजनैतिक भलाई है, जिसे सालों पोषा गया उसके परदे के पीछे की कहानी और आगे की तस्वीर जुदा है, जिसे छिपाने/बिगड़ने का श्रेय देश के बुद्धिजीवी वर्ग पत्रकार,कानून और संविधान के जानकर के अलावे इतिहासकारों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. कोई झूठला के तो देखे रोटी की मलाई और काली कमाई, पिघल कर कैसे सरक लेती है?
गफलत में जी रही देश की आम जनता को आम उम्मीद की चुनावी रेवड़ी हर पांच साल बाद बांटी तो जाती है. मगर आम के पकने और थाली तक पहुँचते पहुँचते गुठली में तब्दील आम से ही संतोष करना पड़ता है, क्योंकि आम तब खास हो जाती/जाते है?
माना की व्यवस्था लाचार है, वायदें निभाए नहीं जा सकते मगर कोशिश तो की जा सकती है मगर नहीं क्योंकि मलाई पिघल कर सरक लेगी और सुखी रोटी का निवाला जो चुनावों में सिर्फ दिखाने के लिए खाया जाता है, हर रोज हलक से कैसे उतरेगा?
राजनैतिक परिंदे के पास अभी भी वक़्त है देश की जनता को थोड़ा और सता ले, क्योंकि लोकतंत्र में परिवर्तन के पहिये का झटका थोड़ा होले होले ही डोलता है?