मीडिया के बहकने से ज्यादा उसके एकदिवसीय उपवास के आदेश पर देश परेशान है, कभी देश (भारत) के बारे में आज तक सकारात्मक लेख नहीं लिखने वाले बीबीसी ने तो उपवास को हत्या में तब्दील कर दी ये तो हद हो गई यारों?
इस उपवास/हत्या का लेखा जोखा का सार अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़ कर देखा जा रहा है, क्या कभी किसीने नियत तो टटोलने की कोशिश की थी/है? जब नियत के साथ अभिव्यक्ति का तुलनात्मक अध्धयन होगा तब धरातल पे सच्चाई से सामना होगा तब तक बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना?
देश परेशान हो भी क्यों न एक ढर्रे से आदी जनता/समाज में उथल पुथल होती है तब तलाश एक विकल्प की, की जाती है ये विकल्प के तलाश का दौर है, जनता के लिए अपना एक खाखा तैयार करने का दौर है की हम आने वाले दिनों में कहाँ और कैसे सुरक्षित रहेंगे?
खैरात का नहीं काम करने का दौर है, कुर्सी तोड़ने का नहीं चहल-कदमी का दौर है, वातानुकूलित कमरे से बहार झाँकने का दौर है और इसीसे कहीं देश परेशान तो नहीं है?
चलना ही जिंदगी है चलते रहिये, दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिये, चिता तो अंतिम सत्य है रो कर गुजारा करने से बेहतर है चंद लम्हे हंस कर तो गुजारिये, गरीबी एक मानसिक अवस्था है, वाले जुमले से बहार निकलने का दौर है?