कृषि प्रधान देश की परम्परा गल्ली, मोहल्ला,क़स्बा और गांवों से ताल्लुक रखती थी/है,समय के साथ देश जब तरक्की के रस्ते पर अपना सफर आहिस्ता आहिस्ता तय किया तब यह स्वरुप भी बदला और शहरीकरण की नीव पड़ी फिर गल्ली,मोहल्ला,क़स्बा और गांवों की जीवन शैली में भी तबदीली आई और चंकाचौध की दुनिया का तानाबुना बना गया या यूं कहें की इसकी शुरुआत हुई?
ज़िन्दगी जब गांवों से बेपर्दा हुई तो फिर ऐसे बेपर्दा हुई की आगे होती ही चली गई और इसका अंत कब, कहाँ और कैसे होगी इस सवाल का जबाव देने की हैसियत के साथ खड़े होने वाली भी दो बार विचार करने के बाद कहेंगे की क्या जवाब दे?
ऐसा नहीं है की लांछन का सारा श्रेय सिर्फ शहरी ज़िंदगी के हिस्से ही आएगी, अब तो गांवों भी कदम से कदम मिला कर चलने को तैयार है, कदम देर से उठाया था वरना प्रतियोगिता में बराबरी की होती?
शहरी जीवन और सामाजिक तानाबुना, बनते बिगड़ते रिश्ते जो कभी सुनी ना हो जब ईजाद हो जाती है तब उस रिश्ते को क्या नाम दे पर जब बहस चलती है तब बड़े से बड़े बुद्धिजीवी भी देश में एक बार तो सोच में पड़ ही जाता है फिर भी रिश्ते के नाम का नाम नहीं बता पता है?
नैतिक मूल्यों में गिरावट का दौर कब थमेगा, जब थमेगा तब थमेगा मगर आगे का रास्ता कहाँ से कैसे और किधर से निकलेगा क्या तलाश जारी रहेगी, या पूरी होगी मगर कैसे फिर एक नया सवाल आ के खड़ा हो गया?
जबाव खोजिए,लगे रहिये मगर खुश रहिये और जीते रहिये!