दान पात्र में दान देने वाले लोगो के नामों की सूची जब उतार दी जाती है तब सवालों की सूची का जहन में कौंधना लाजमी है? कुछ एक सवाल इस तरह के हो सकते है, मसलन दान देने वाले कौन थे जो अपना नाम छुपाना चाहते है? उनको अपने नाम के उजागर होने से डर कैसा? दान में दी गई राशि का स्वरुप कैसा था/है, इत्यादि इत्यादि?
जिस चश्मे को आँखों पे चढ़ाकर देश की जनता को रेगिस्थान में हरियाली का एहसास कराया गया क्या वो हरयाली एक धोखा था? या वक़्त के हाथों उस चश्मे को राजनीती के बाजार में उतारना ज़रूरी/मजबूरी में तब्दील हो गई? राजनीती नई थी सोच अलग थी तब ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी की पारदर्शिता की सूची को तख्ते पर से उतार कर फेकना पड़ा?
१९८० के दौर को याद कीजिये कहीं पंजाब में उसकी पुनरावर्ती तो नहीं होने जा रही है, जिस आग में पंजाब जला और देश ने एक बेहतरीन प्रधानमंत्री को खोया, कहीं उस दबे हुए चिंगारी को फिर से सुलगाने का साजो सामान तो तैयार नहीं किया जा रहा है?
क्योंकि उस सूची के दानदाता इस देश से कहीं अधिक उस देश से है जहाँ कभी एक अलग जहाँ का सपना संजोया गया था और बंटवारें की पृष्टभूमि तैयार की गई थी पड़ोस की मदद से? सत्ता हासिल करना और सत्ते को संभालना सत्ता हासिल करने से कहीं अधिक मुश्किल होता है?
एक कोशिश दिल्ली में बेकार होती हुई नजर आ रही है, अंजाम आगे क्या होगा इस सवालिया निशान के साथ आगे पंजाब में भी चुनावी माहौल है, इंतजार कीजिये जलेगा या संभलेगा?