ये मेरा इतिहास ये तेरा इतिहास मगर है किसका इतिहास मालूम नहीं?
3 सितम्बर 2015
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राजनैतिक रस्साकस्सी का सबसे सुखद पहलु यह है की अधकचड़े इतिहास का पुनरावृति हो जाती है, अगर विषय इतिहास पे गौर करें तो सिक्के के दो पहलु की तरह एक ही ऐतिहासिक घटना के कई पहलु है अलग अलग समाजिक और राजनैतिक दृष्टिकोण से?
इतिहास की किसी भी घटना को आप उठा कर देख लीजिये उसमे विरोधाभाष है ऐसा क्यों है इसको जानने की क्या कभी कोशिश की गई है इसका इतिहास आजतक कभी दूरदर्शन के माध्यम से सुनने और समझने को नहीं मिला? देश का आधुनिक इतिहास जब स्वर्गीय नेताजी और देश के प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी के मृत्यु के कारणों का सही सही निवारण नहीं कर पाया तो हज़ारों साल पहले का इतिहास पर देश की जनता कितना भरोषा करेगी यह है सवाल है जो लाजमी है?
आज के दौर को ही देख लीजिये सुचना क्रांति के युग में भी जब की सभी सहूलियतें हासिल है तब भी इतिहास में कहें गए शब्दों पर पर्दा डालने के लिए दोषारोपण किया जाता है की यह मेरा व्यान नहीं है और किसीने जानबूझ कर मेरी आवाज़ में कहा होगा या फिर समाचार माध्यम ने इसको तोड़ मड़ोड़ कर जनता के सामने परोष दिया होगा? गलती मेरी जिम्मेदारी किसी और की तरह क्या यह इतिहास में इस तरह के वाक्या की संभावना नज़र नहीं आती है अगर आती है तो आगे रक रास्ता क्या है और किधर से निकलेगा और कौन निकलेगा अजीब स्थिति है विषम परिस्थिति है?
किसी भी घटना के शायद दो राजनीतिक पहलु होते होंगे एक चश्मा सत्ता पक्ष के नजरिये से और दूसरा विपक्ष के नजरिये से, ठीक उसी तरह उसका असर समाज पर भी होता होगा एक समाज वह जो उस कांड का भुक्तभोगी है और दूसरा जो कर्म करता समाज है? एक नजरिया तटस्थ दृष्टिकोण का भी होगा जो उस वक़्त तटस्थ रहा होगा अब सोचिये ज़रा इतने सारे को मिलाकर कर जिस इतिहास को लिखा गया है वो कितना प्रभावी होगा?
एक नाम के बदलने से राजनैतिक और सामाजिक परिपेक्ष में दोनों पक्ष जब आज आमने सामने है तो इतिहास कितना भयावह रहा होगा उसका अंदाजा लगाया जा सकता है? जोड़ने के लिए कम से कम दो चाहिए और जोड़ के लिए उचित सामग्री/साधन एक के चाहने से कुछ हासिल नहीं होगा यह तो तय है?
बुद्धिजीवी जिसमे पत्रकारिता जगत भी शामिल है दो भागों में बंटे हुए नज़र आ रहें है जब लोकतंत्र के चौथा स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता जगत ही एक मत नहीं है किसी भी ऐतिहासिक घटना पर तो जनता और देश के विभाजन से पत्रकारिता जगत के दोनों पक्ष परेशान क्यों है?
कहीं राजनैतिक फायदे के लिए तो इसका इस्तेमाल नहीं हो रहा है अगर हो भी रहा है तो जनता कर भी क्या लेगी दोनों पक्षों को पढ़ेगी सुनेगी और अपना ही सर(माथा) फ़ोड़ेगी?
सुधी पाठकों के बीच एक महत्वपूर्ण स्वस्थ चर्चा का विषय है, चर्चा होगी तभी हल भी निकलेंगे कि ऐसे में हर व्यक्ति अपने स्तर पर अपनी क्या जिम्मेदारियां समझे और उनका निर्वहन कैसे करे ।