इतिहास के पन्नो में दर्ज़ बंधुआ मजदूरों पे लेख और किस्से बहुत पढ़े और सुने होंगे मगर १९७६ के आते आते सरकारी पाबन्दी के बाद इस प्रथा को बंद करना पड़ा सरकारी कागजों में! मगर या कुप्रथा आज भी जारी है परदे के पीछे?
बंधुआ मजदूर यानी गुलाम, ख़रीदा हुआ इंसान जो काम करे हमारे लिए किसी और के लिए नहीं, सभ्य समाज ने इसे दरकिनार कर दिया और इस व्य्वस्था से मुंह मोड़ लिया क्योंकि यह अमानवीय था! अभिव्यक्ति की आज़ादी तक छीन जाती है जो की हमारा संवैधानिक अधिकार है!
अभिव्यक्ति की आज़ादी और स्वंतंत्र इत्यादि पर हम काफी बहस कर लेते है, मगर इसी देश ने २०१६ यानी इकीसवीं सदी में इस कुप्रथा (बंधुआ मजदूरों) का एक नया स्वरुप देखा है? इस प्रथा में आम इंसान नहीं वल्कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि/कानून निर्माता गुलामी करेंगे और उनकी यह गुलामी कानूनी बाध्यता के दायरे में आएगी या नहीं बहस सिर्फ अब इसी बाध्यता पर बाकी है?
रूपये १००.०० पे करार/शपथपत्र की कानूनी मान्यता कितनी है इस पर सवालिया निशान ज़रूर है मगर राजनैतिक गुलामी की प्रथा के युग का शुभारम्भ अब हो चूका है, क्या ऐसा मान लिया जाये?