भारतवर्ष के संस्कृतनिष्ठ ज्ञान - विज्ञान की प्राचीनता और अद्वितीय वैज्ञानिकता ने पश्चिमी विश्व के सबसे बड़े सुधार पूंजीवादी ‘पुनर्जागरण’ के अभिमान को भयंकर ठेस पहुंचाई। साथ ही भारत की अकूत संपदा एवं अविभाज्य सामाजिक विन्यास को देखकर ब्रिटिश, जर्मन एवं अन्य यूरोपीय लोगों के कलेजे पर सांप लोटता था।
इसी कारण उपनिवेशवाद के दौर में ब्रिटिश लोगों ने हिन्दुस्तान पर अपनी हुकूमत को दीर्घकालीन रखने के लिए तथा भारत के समृद्ध आर्थिक-सामजिक तथा सांस्कृतिक ढांचे को ध्वस्त करने की साजिश के तहत व्यापक तौर पर ‘भारतीय इतिहास’ को निशाना बनाते हुए जमकर छेड़खानी की।
इससे भी अधिक अफ़सोस की बात यह रही कि आजादी के बाद भी हमारे ही देश के अग्रिम पंक्ति के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को यूरोपीय व शेष पश्चिम के दृष्टिकोण से ही लिखा और जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। इतिहास के साथ हुई इसी छेड़छाड़ के परिणामस्वरूप हम आज विभिन्न सामाजिक विषमताओं और बुराइयों से जूझ रहे हैं। यही नहीं, भारतवर्ष की अखंडता और एकता की जड़ें भी इसी बौद्धिक प्रहार के कारण कमजोर हुई हैं।
आज हम आपको उन 9 कारकों के बारे में बताएंगे, जिसके आधार पर धूर्त इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास का चीर-हरण कियाः
1. भारतीय साक्ष्यों के प्रति अविश्वास
आप आज भी ग्रामीण (जहां शिक्षा का प्रसार सापेक्षिक रूप से कम है) परिवेश में लोगों को किसी तरह के सामजिक और बौद्धिक परिचर्चा में ‘पौराणिक आख्यानों’ का प्रमाण देते हुए देख सकते हैं। राजा बली, भगवान राम, कृष्ण या अन्य पौराणिक किरदारों को लोग मिथक के रूप में नहीं, अपितु इतिहास के रूप में ही स्वीकारते हैं। सदियों से इन्ही किरदारों ने उन्हें उनके नैतिक मूल्यों से जोड़ रखा है। उनके पास इनकी सत्यता के पर्याप्त प्रमाण भी हैं। परन्तु पश्चिम प्रभावित तथाकथित आधुनिक शिक्षाविदों ने हमारे ‘प्राच्य’ ग्रंथों को सरासर पक्षपाती होते हुए मिथक करार दे दिया।
यद्यपि मौजूदा दौर में होने वाली आधुनिक रिसर्च में यही तथाकथित मिथ अपनी सत्यता से शोधार्थियों को अचंभित कर देते हैं। फिर भी सबसे अधिक दुःख की बात तो यह है कि प्राचीन भारत के इतिहास के अधिकतर तथ्य उत्खनन ,पुरातात्विक साइट्स या प्राचीन उपलब्ध ग्रंथों को आधार बनाकर नहीं, अपितु अरब और चाइनीज पर्यटकों की यात्रा पर लिखे गए। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि हम हमारे पूर्वजों के बारे में विदेशियों के माध्यम से जान रहे हैं ?
2. गैर-ईसाई सभ्यता के प्रति पूर्वाग्रह
भारत में रूचि लेने वाले जर्मन और ब्रिटिश इतिहासकार इस बात को पचा नहीं पा रहे थे कि दुनिया में ज्ञान और चेतना की पहली किरण एक गैर-क्रिश्चियन खंड में फूटी। अपनी इसी ‘कुंठा’ को शांत करने के लिए पश्चिमी विद्वानों ने भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म की जानबूझकर गलत व्याख्याएं की।
दरअसल, ब्रिटिश ये मूल बदलाव इतिहास में जीसस को सर्वश्रेष्ठ और अन्य को निम्न दिखलाने के लिए कर रहे थे। इसका प्रमाण आप काल के विभाजन में जीसस के जन्म से पूर्व(Before Christ) तथा जीसस के जन्म के पश्चात(A.D.) के सार्वत्रिक उपयोग से समझ सकते हैं। इतिहास की संकीर्ण व्याख्याओं का उपयोग उन्होंने बाद में हिन्दू से क्रिश्चियन धर्मांतरण और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में भी किया।
3. धर्म के आधार पर इतिहास का वर्गीकरण
भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसने दुनिया की लगभग हर सभ्यता को पनाह दी और उसे पल्लवित करने में पूरा सहयोग दिया। चाहे वह पारसी हों, मुस्लिम हों, ईसाई हों या फिर यहूदी ही क्यों न हों। ये विदेशी धर्म/संप्रदाय जहां जन्में थे, वहां की तुलना में वे भारत में ज्यादा सुरक्षित और अनुकूल परिस्थितियों में थे। भारतीय समाज की इसी कौमी एकता के प्रति ईर्ष्यात्मक होते हुए इतिहास को धूर्त ब्रिटिशों ने हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालखंड के रूप में प्रचारित किया।
इसी कड़ी में जातिगत संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न जातियों के आपसी संघर्ष को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। यह अंग्रेजों की ‘डिवाइड एंड रूल’ की दूरगामी नीति का एक हिस्सा था।
4. पौराणिक साहित्यों की अवमानना
महाभारत और रामायण इत्यादि में वेदों का जिक्र कई बार किया गया है। आखिर कैसे महज ढाई से तीन हजार वर्ष पूर्व में लिखा गया यह साहित्य 5 से 10 हजार वर्ष पूर्व के युग में विद्दमान था !! नवीन खगोलीय शोधों के मुताबिक़ वेदों में वर्णित नदी ‘सरस्वती’ करीब 4000 वर्ष पूर्व अस्तित्व रहित हो गई थी।
मैंने अपने पिछले लेख में भविष्यपुराण और उसमें चमत्कारिक रूप से कूटबद्ध ऐतिहासिक घटनाक्रमों की प्रमाणिकता के बारे में लिखा था। पुराण जो की न केवल भारत बल्कि समूचे व्याख्या करते हैं, को सिर्फ Mythology करार देकर इतिहास लेखन में वर्णित कालखंड को जान बूझकर सम्मिलत नहीं किया गया। यही कारण है कि आज भी भारत के प्राचीन इतिहास के एकरूपता नहीं है।