ताजवर की पत्नी जब तक अपने पैतृक गॉव में रही वह ताजवर के पीछे लगी रही कि सबने देहरादून ़़़ऋषिकेश कोटद्वार में मकान बना लिये तुम ही पता नहीं क्या सोच रहे हो, ताजवर हमेशा टालने की कोशिश करता और कहता कि बच्चे कमायेंगे और बना लेंगे हमारी जिंदगी तो यहीं निकल गयी अब आखिर वक्त में पिजंरे में रहने के लिए कहॉ जाना। रेणुका रोज ताजवर को अपने रिश्तेदारों और अन्य लोगों की बातें सुनाती हुई कहती कि उन्होंने भी कोटद्वार में जमीन ले ली है, मामा के बच्चों ने देहरादून में मकान बना लिया है, जेठानी कह रही थी कि टीचर हैं, और इतनी कंजूसी कर रहे हैं, क्या कमी है, लाखों कमा रहे हैं, फिर भी गॉव में ही रह रहे हैं, कहॉ ले जायेगें कमाई को। मैं नहीं सुन सकती अब लोगों के तानों को। ताजवर भी अपनी पत्नी और बच्चों के उलाहने से परेशान होकर आखिर में अपनी पूरे जीवन की जमा पूॅजी से देहरादून के तुनवाला में मकान बना लिया। अब बस पेंशन ही मात्र सहारा थी, यह सोचते सोचते ताजवर को नींद आ गयी।
सुबह अलॉर्म बजा और ताजवर बेमन से उठा और फिर विद्यालय जाने की तैयारी करने लगा। 05 बजे ड्राईवर रायपुर चौक पर लेने आ जायेगा जरा देर हो जायेगी तो बाकि अध्यापक कहने लगेगें कि ताजवर नेगी जी की वजह से आज देर हो जायेगी। रोज के तीन घंटे सुबह के और शाम के भी तीन घंटे तो सफर में निकल जाते। बुढापे में जहॉ घर के पास नौकरी होनी चाहिए थी आज सुबह सुबह भागना पड़ रहा है। इसी भागा दौड़ी में दो साल निकल गये, और सेवा निवृत्ति के छह माह रह गये तो कुछ समय मेडिकल में निकाल दिये और कुछ समय छुट्टियों में निकल गये। समय में ठहराव कहॉ होता है, वह तो मुठ्ठी में रखे रेत के समान निकलता है।
वहीं रेणुका शुरू शुरू में तो देहरादून की आवोहवा अच्छी लगी लेकिन उसके बाद दिन भर अकेले घर में बैठे बैठे बोर होने लगी, पास पड़ोसियों को देखकर और रिश्तेदार क्या कहेंगे यह सोचकर घर में झाड़ू पोछा और बर्तन धोने के लिए एक कामवाली भी रख दी, अब दिन भर टीवी और फोन पर व्यस्त, अब हाथ पैरों में दर्द, शुगर अलग बढ गया, जब तक गॉव में थी छींक तक नहीं आई थी, वहॉ तो फुर्सत ही नहीं थी, बुखार भी आया होगा तो लेटने का समय कहॉ मिलता, काम में ही पसीना हो जाता तो बुखार उतर जाता। अब देहरादून वाला घर उसको जेल लगने लगा, बाहर भी निकले तो किसके साथ, पडौ़स में हर कोई मतलब की बात करते।
गॉव में तो किसी के घर के ऑगन में चले जाओगे तो दो चार आदमी मिल ही जाते एक दूसरे की सुन ली अपनी लगा ली, यहॉ तो अपनी मन की बात करें भी तो किससे करें। सुबह अखबारों में खबरें आती कि देहरादून और अन्य शहरों में बूढे दम्पत्ति को बंधक बनाकर लूटा। यहॉ तो अब मजबूरी हो गयी थी रहने। छोटा बेटा अजय कहता कि आप भी हमारे साथ बैंग्लूरू चलो वहीं रहो, बेटों कहने पर तो देहरादून में आलीशान मकान बनाया, जिस पर पूरी जमा पूॅजी लग गई, अब उसे छोड़कर जायें भी तो कहॉं।
ताजवर और रेणूका दो दिन के लिए गॉव पूजा में गये तो, जाने से पहले बेटे के कहने पर घर मेंं सीसीटीवी लगवा दिया, ताकि निगरानी में घर रहे। गॉव जाकर अपने पराये मिले, और उनके साथ खूब बातें की। गॉव में उनकी उम्र के लोग जो कि अब साठ पार हो चुके थे, वह शाम को एक जगह पर कठ्ठे हो जाते और फिर कुछ देर के लिए हॅस खेल लेते। किसी के घुटने में दर्द, किसी हाथ पैरों में सुन्न होने की समस्या तो थी लेकिन वह अपने काम में इतने व्यस्त रहते कि अपना दुख भूल जाते। वह कहते कि यहॉ तो सब छोड़कर चले गये हैं, गॉव खाली हो गये हैं, यह सुनकर रेणुका कहती कि यह मत समझो कि यहीं पलायन हुआ है, इससे ज्यादा पलायन तो शहरों में हुआ है, वहॉ भी तो हम जैसे ही दो दो बूढे बूढे पती पत्नी घर में रह रहे हैं।
वहीं ताजवर भी कहता कि जिन घरों में अभी बच्चे हैं भी वह भी अपने अपने कमरों में मोबाईल फोन के साथ कैद हो रखे हैं, परिवार के लोग कभी एक साथ नजर नहीं आते, सब अपनी जिंदगी में मस्त हैं, किसी के सुख दुख से किसी को मतलब नहीं है, अगल बगल में यदि कोई मर भी जाय तो फोन के स्टेटस पर पता चलता है कि ऐसी कोई बात हो गयी है। दोनों दो दिन गॉव में रहे काफी अच्छा लगा, अगले दिन देहरादून आ गये, क्योंकि देहरादून में बने मकान की चिंता हो रही थी। मोह माया से देहरादून के घर से जुड़े थे किंतु यादें तो गॉव के घर में ही थी। अब तो मजबूरी थी देहरादून में रहने की, क्योंकि वहॉ पर पूरे जीवन की कमाई जो लगी थी। बेटे तो देहरादून का मकान बेचने की बात कर रहे थे, किंतु अब ताजवर बुढापे में और अधिक धक्का नहीं खाना चाहता था इसलिए बेटों से कहा कि जब हम इस दुनिया से चले जायेगें तुम्हारी सम्पत्ति है जो तुम्हें कर लेना बेटा, बस हमें कुछ दिन यहॉ रहने दो।
ताजवर और रेणुका अब देहरादून की कोठी में अपना घर कम और चौकीदार बनकर रह रहे थे, क्योंकि जवानी तो गॉव के घर में ही बीती थी यादें तो वहीं बसी हुई थी, किंतु यहॉ पर जीवन गुजारना उनकी मजबूरी थी। ताजवर और रेणुका के जैसे अनेकों दम्पत्ति जब मिलते तो उनके मन की यही टीस अक्सर निकल जाती, लेकिन अब कर भी क्या सकते थे, लिए गये निर्णयों को बदलना मुश्किल था, क्योंकि अब हालात और स्थिति अब उनके अनुकूल नहीं थी बस जैसा चल रहा था वैसे ही उनको चलना था, घुटघुट कर जीना नियती बन चुकी हैं।
हरीश कण्डवाल मनखी कलम से।