सावन की खीर
सावन की झमाझम बारिश लगी हुई है, मंडुये के खेत मे भगतू ने हल लगा दिया है, भगतू की पत्नी रज्जू ने घने मंडुये की पौध को एक तरफ निकाल दी है। शाम को दूसरे खेत मे मंडुये की पौध लगाई जानी है। इसके लिए गाँव के अन्य महिलाओ को भी बुलाया गया है। गाँव मे खेती करते हुए एक दूसरे की मदद करते हैं, और हर रोज अलग अलग किसान के खेत मे सामूहिक कार्य करते हैं। ऐसी व्यवस्था उत्तराखंड के गढ़वाल के कुछ क्षेत्र मे धनकुर के नाम से प्रचलित है।
शाम को धनकुर आए उन्होंने रज्जो के साथ खेत में मंडुये की पौध लगायी, उसके बाद गहथ के खेत मे जाकर उन्हें नेलने ( घास की कटाई छटाई) लग गए। रज्जो ने सबके लिए प्याज चौलाई की सब्जी औऱ रोटी बनवाई थी। रज्जो की बेटी दीपा सबके लिये खेत मे ही चाय, सब्जी रोटी पानी लेकर आ गई। उसके बाद सबने आम खाये, और थोड़ा आराम करके काम करने लग गए। उसके बाद सबने बीशा फूफू को याद करते हुए कहा कि उनके नाम से हम सावन की खीर के लिये पहले कि तरह दूध देगे। इन धनकुरो में एक नई बहू भी थी उन्होंने पूछ लिया कि यह बीशा फूफू कौन थी और उनके नाम से सावन की खीर से क्या सम्बन्ध है।
धनकुर मे गांव की सबसे बुजुर्ग महिला थी उन्होंने बताया कि हमारे गांव में बीशा फूफू रहती थी, वह जगत फूफू के नाम से जानी जाती थी, वह इस गाँव की बेटी थी, रिश्ते में वह सबकी बुवा या दीदी लगती थी, तीन भाइयों की एक बहिन थी। जब उनकी शादी हुई थी तो उनकी उम्र लगभग 12 साल की रही होगी, शादी के एक महीने बाद उनके पति हैजा की बीमारी से चल बसे और उस बालिका को बाल विधवा का कलंक लगा गये। उस जमाने में यदि किसी का पति शादी के कुछ समय या साल बाद मृत्यु हो जाती थी तो उसका दोष उंसकी पत्नी को दतियानूसी समाज दे देता था जबकि अबोध विधवा बालिका को जन्म मृत्यु का ज्ञान तक नहीँ होता था।
बाल विधवा अब ससुराल में भी किसके सहारे रहती उस जमाने मे जिनके पति भी साथ होते थे वह भी बुजुर्गों खासकर खड़ूस सास के आगे गुलाम बनकर रहते थे। वह तो बेचारी बेगुनाह अपराधी बन गई थी। अब तो दिन रात उसके ऊपर अत्याचार और हर बात पर ताने मारे जाने लगे, उसे अपने पति को खाने वाली, अभागन जैसे शब्दों के बाण से आहत हुए मन को और घायल कर देते। जब ससुराल में अत्याचारों की सीमा बढ़ती गई तो एक दिन शाम को वह भागकर अपने मायके आ गई, उस जमाने मे विवाहित बेटी को मायके में रोकना पाप की श्रेणी में रखा जाता था, माँ बाप का एक ही कठोर जबाब होता कि बेटी की डोली मायके से उठती है और अर्थी ससुराल से।
इधर उस बाल विधवा बीशा फूफू के लिये यह शब्द भी जहरीले बाण के समान लग रहे थे। उसने कहा कि आप चाहो तो बेटी की हत्या का पाप अपने सिर ले लो लेकिन अब मैं ससुराल नही जाऊंगी। उसके बड़े भाई ने कहा कि यदि वह नही जाना चाहती तो मत भेजो, जैसे नमक रोटी हम खायेंगे वैसे ही यह बेचारी भी खा लेगी। उसको गौशाला में एक कमरा रहने को दे दिया। जब तक माँ बाप रहे तब तक साथ रही जब भाईयो की शादी हो गई तब उसने अलग से गाय भैंस पाल लिए। घी दूध बेचकर लोगो के साथ खेती बाड़ी मे हाथ बटोरकर अपने लिए साल भर का अनाज इकट्ठा कर लेती।।
गांव में कोई शादी विवाह होता तो विषप्पू को सब बुलाते बेटी की विदाई या बहुत आने पर उसको भी 2 जोड़ी कपड़े 1 जोड़ी कपड़ा जो जिससे बनता था वह दे देता था कल हुआ खाना-पीना तो वह हफ्ते से चलता रहता ऐसे में मायके में रहते हुए बीशा फूफू के दिन करने लग गए अब तो भाइयों के भी बच्चे हो गए थे अपने भतीजे को खिलाती उनको घुमाते और उन्हें खीर चावल रोटी जो भी हो सकता था वह देती अपने भतीजे को और भतीजी यों को खूब लाड़ करती 20 अंकों का स्वभाव सबके साथ मिलनसार था गांव में कोई प्रिया अप्रिय घटना वहां बीशा फूफू जरूर पहुंच जाती और सर के सुख दुख में खड़ी रहती।
गांव में खेती पाती में सबका काम करने सबसे पहले बीशा फूफू पहुंच जाती । मेले त्यौहार पर सब लोग बीशा फूफू को मिठाई स्वाले, पकौड़ी जो भी बनता दे देते थे। सावन के महीने में गाँव मे लोग दूध की दही नहीं जमाते थे ना घी बनाते थे, पूरे महीने में बारी बारी से सबके घरों में दूध देने की अटूट प्रथा थी। बीशा फूफू रूटल्या त्यौहार के दिन ही हिसाब लगा देती की इस बार किसके घर से दूध देना शुरू करना है। बीशा फूफू अकेला प्राणी थी, कहती थी कि मेरा जितना दूध है वह ले जा लो, बस चाय के लिये एक गिलास बहुत है, एक कटोरी साग औऱ दो रोटी दे देना साथ मे एक कटोरी खीर। वैसे भी बीशा फूफू ज्यादा तर दूध में चावल पका कर दूध भात खा लेती थी कभी आटे को भूनकर उसे दूध में पका लेती जिसे वह लस्सी कहकर खा लेती थी। अकेला प्राणी के पेट पालने के लिये यही काफी था।
समय व्यतीत होता गया शरीर अब इतना काम नहीं कर सकता था, अब कुछ गाय भी कम कर दी, भैंस भी बेच दिया। भाई और उनकी बहू कहती भी की उनके साथ ही खा ले लेकिन बीशा फूफू को उचित नही लगता था, वह बोझ नही बनना चाहती थी किसी पर। कहती थी कि जब तक हाथ पैर चल रहे हैं तब तक हाड़ तोड़ लेती हूँ, जब असहाय हो जाऊंगी तब चाहे तुम देना या नही देना तुम्हारी मर्जी, भले नेक काम किये होंगे तो दो रोटी खा ही लूँगी। सबका भला सोचने वाली बीशा फूफू पिछले साल ही इस दुनिया से चल बसी। अब गाँव मे उनके जाने से सूना सूना सा लगता है, वह सबके साथ बोल लेती थी, सबको हँसा लेती थी , सबके सुख दुख की साथी थी, शायद ही कभी किसी को उन्होंने कुपथ कहा हो। सबको प्यार से बोलती, और समझाती थी, छोटा हो बड़ा हो, साहूकार हो, गरीब हो सब बीशा फूफू की जरूर सुनते थे, इसलिये सब उनको जगत फूफू कहते थे।
सावन के महीने लगते ही फूफू सबको पहले ही कह देती थी कि इस बार दूध बारी बारी से प्रत्येक परिवार को दूध दिया जाएगा, और किंस दिन किंस परिवार को देना है यह बीशा फूफू ही तय करती थी। तीन पीढ़ियों ने उनकी बात ही मानी औऱ इस नियम को बिना ना नुकुर किये सहर्ष स्वीकार किया। जिसके घर मे दूध नही होता था उसको भी सावन की खीर खाने को मिल जाती थी, इस तरह से पूरे सावन में पूरे गाँव में खीर अवश्य बनती थी। इसलिए उनकी याद में हम लोग इस बार भी ऐसे ही बारी बारी करके सबको दूध देगे।
सबने सहमति व्यक्त करते हुए सावन के महीने में दूध को बेचने या दही जमाने के लिए नही रखने का निर्णय लिया, और फिर सभी अपने अपने घर घास सिर पर रखकर रास्ते लग गए।
हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।