मानसिक पलायन
गरीबी और लाचारी ने तो परिवार को पहले से ही दबा रखा था ,इधर भाईयों और 02 बहिनों की पढायी के बोझ को देखते हुए नौकरी करने सतीष 12 वीं के बाद अपने मामा के साथ मेरठ आ गया। वहॉ एक होटल में नौकरी करनी शुरू की। मॉ पिताजी घर की खेती बाड़ी का काम करते थे, खेत से पैदा हुए अन्न से तो परिवार का भरण पोषण हो जाता था, लेकिन दवाई, चाय चीनी के खर्च के लिए तो रूपयों की आवश्यकता होती थी, खेत में इतना अन्न नहीं उगता था कि वह बेचा जा सके। साल भर में गाय - बछड़े या बकरी बिक गयी वही आय का मुख्य स्त्रोत होते थे जो बच्चों की फीस और दो चार कॉपियों को खरीदने के लिए पर्याप्त होते थे। सतीष जब गॉव छोड़कर गया तो उसे घर की याद आती थी, लेकिन मजबूरी में होटल में काम की व्यस्तता के चलते आते आंसुओं को बहने से रोक देता था कि साथी देखकर उसका उपहास ना उड़ाये, लेकिन रात को फूट फूटकर अकेले में आंसुओ के सैलाब को बहने देता। वक्त सब घाव और हालातो से समझौता करना सीखा देता है।
सतीश सपने देखा करता था कि वह जब खूब रूपये कमा लेगा तो गॉव में सबसे ऊपर वाले खेत में एक अच्छा सा मकान बनायेगा, अपनी और भाई बहिनों की शादी खूब धूमधाम से करेगा। रात को यह सब खुली ऑखो से यह सपने देखते हुए उसकी ऑख कब लग जाती थी पता ही नही चलता था। हर रोज इन्ही सपनों की उधेड़ बुन में लगा रहता, समय कब किसका इंतजार करता है, वह तो मुठ्ठी की रेत की तरह होता है जो दरकता रहता है, उसका अहसास तब होता है, जब मुठ्ठी खाली हो जाती है।
सतीष की उम्र तो बढती गयी लेकिन आमदनी में उतनी गति से इजाफा नहीं हुआ, जिस गति से उम्र में हो रही थी। अतः उसने अपना फैसला लिया होटल की नौकरी छोड़ मेरठ में एक स्पोर्टस का सामान बनाने वाली कम्पनी में काम करना शुरू किया, जहॉ की तनख्वा तन और मन को उस समय के अनुसार आल्हादित करने के लिए काफी थी।
वक्त की गति ने रफ्तार पकड़ी और सतीष की दोनो बहिने शादी की उम्र दहलीज पर पहॅुच गयी, तो उनकी रिश्ते की चिंता सपरिवार को होने लगी, बेटीयों की उम्र जब शादी के लिए होती है तब मॉ बाप को उनकी उम्र पूरणमासी की बढती चॉद की तरह लगने लगती है।
सतीष की जमा पूॅजी दोनो बहिनों की शादी में लग गयी, अब मॉ बाप सतीष के लिए भी दुल्हन की तलाश में जुट गये, सपनों की दुल्हन के बारे में तो सतीष ने भी ख्वाब सजाने शुरू कर दिये थे, उसका सोचना था कि मॉ बाप को बहु जो मिले वह गॉव में रहे और घर परिवार की देख रेख के साथ मॉ बाप की सेवा करे। सतीष का सोचना था कि एक वक्त बाद वह घर जाकर ही काम करेगा, लेकिन मन की कल्पना कब थाह लेती है, वह तो बस उडती रहती है।
सतीष की भी जन्म पत्री जुड़ गयी, लड़की देखी, सौर सगौर में तो सतीष को पंसद आ गयी, सगाई का दिन तय हो गया। अब सगाई के लिए अंगूठी और कपड़ों की व्यवस्था करना और अन्य खर्चों की जुगत में लग गया। सगाई हो गयी उसी दिन शादी का दिन बार तय हुआ और छ माह बाद सतीष की दुल्हन ने चौक में अपने कदम रखे तो मॉ बाप और सतीष के सपने सच हो गये।
वक्त बदला और सतीष के दो बच्चे हो गये, अब सतीष की पत्नी रेखा हर रोज सतीष को फोन करती और कहती कि सरकारी स्कूलों में तो पढाई होती नही है, अपना भविष्य तो कुछ नहीं है, लेकिन इन बच्चों का भविष्य तो देखना ही है। गॉव में सब देवरानी जिठानी अपने पति के साथ बच्चों को लेकर चले गये हैं। उधर सतीष की मॉ कहती कि तेरे से छोटे छोटे भाईयों ने अपने लिए 100 गज जमीन बाहर शहरों में ली है, तुम ही जो अभी तक जमीन तक नहीं ले सकते हो।
बच्चे बड़े हुए तो रेखा ने सतीश के कान भरने शुरू कर दिए, हर रोज कभी पढ़ाई के बहाने तो कभी अस्पताल के बहाने और कभी पास पड़ोसियो के पति के साथ नौकरी मे जाने की बात कहकर अपनी मन कि इच्छा जाहिर कर लेती तो कभी त्रिया चरित्र दिखाकर रूठ जाती। आखिर में सतीश को समझौता करना पड़ा और बच्चों सहित पत्नी को मेरठ लेकर चला गया।
अभी तक सतीश की गुजर जँहा कम में हो रही थी अब बच्चो के आने से खर्चो के भाव पेट्रोल डीजल की तरह बढ़ने लगे। शहर की भागती दौड़ती रफ्तार जितनी आकर्षक लगती उतनी अपनी जिंदगी खोखली सी लगती।
सतीश हमेशा पत्नी को कहता कि बच्चों की पढ़ाई हो जाय और अपने पैरों में यह खड़े हो जाय तो मैं बस गाँव जाकर रहूं, लेकिन रेखा और बच्चे उसे कहते कि तुमको रहना है गाँव मे रहो, हमारे लिए तो बस दो कमरों की व्यवस्था कर दो, हम यँहा रह लेंगे, तुम रहना अपने गाँव मे, और अपने टूटे हुए मकान पर सीमेंट के जितने टांके लगाने हो लगा देना। पत्नी और बच्चों के आगे सतीश चाहकर भी घर वापिस जाने की योजना को साकार नही बना पाया।
बहुत समय बाद गाँव मे सतीश अपने गाँव शादी में गया तो वँहा देखकर हैरान रह गया, उसके आस पास की सब जमीन बाहर वाले खरीद चुके थे, कंही होटल तो कंही रिजॉर्ट बने हुए थे, गाँव मे तो दो चार बुजुर्ग थे लेकिन होटलों और रिजॉर्ट में खूब चहल पहल थी। दिल्ली हरियाणा से आये लोग प्रकृति का खुले मे आनंद ले रहे है, और जिनकी जमीन जायदाद प्रकृति के गोद मे होते हुए भी बंद कमरो मे घुट घुटकर शान से जीने का दिखावा कर रहे है। पलायन वास्तव में शारीरिक नही बल्कि मानसिक रूप में है, हमने मान लिया कि गाँव मे सुख सुविधाएं नहीं है, जबकि पहाड़ों में अमन चैन और सुख शांति है।
इन्हीं सब बातों को सोचते हुये सतीश ने मानसिक रूप में रिवर्स पलायन करने का दृढ़ निश्चय कर यह प्रण लेकर चला गया कि गाँव मे अगली बार अकेले ही शारीरिक रूप से भी रिवर्स पलायन करके कुछ दिन फिर से अपनी धरती कि गोद मे रहकर बिताऊँगा।
©®@हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।