नंदिनी मनिका को लेकर विदा होकर नवीश के साथ चली गई ,तत्पश्चात श्रीधन हवेली की और उसके सामने शिव मंदिर की सारी सजावट कृषकों की मदद से हटवाने लगा ।शिव प्रताप भानु रात का बचा भोजन व मिठाइयाँ भीतर रखवाकर परात ,भगौने इत्यादि वापस पहुँचाने लगा और दिव्य प्रतीक्षा करने लगा कि ये सब हो तब पिताजी के द्वारा शिव दादा को खरी-खोटी सुनाई जाए !!
गोपी भी दिव्य के साथ ये क्षण देखने को उतावला बैठा था ।
शरबिद्ध पंक्षी की भाँति हवेली के भीतर दिव्या व सुरतिया थीं ।सुरतिया आँखों में आँसू भरे हुए हवेली के भीतर का सब कार्य देख,कर रही थी वहीं दिव्या रोआसी रोआसी पूरी हवेली का एक एक कोना देख रही थी जो नंदिनी के गमन से मानो नीरस व वीरान हो गया था ।
इतनी बडी़ हवेली में नंदिनी के न होने से पूरी हवेली जैसे सांय सांय कर रही थी --हवेली का बाहरी प्रथम कक्ष ,प्रथम कक्ष से हवेली के भीतर बडा़ सा प्रांगण , यू आकार में प्रांगण में दोनो तरफ गलियारे से होते एक तरफ नंदिनी का ,सूर्य प्रताप व दिव्या का कक्ष दूसरी तरफ शिव प्रताप व दिव्य प्रताप का कक्ष ,, पाकशाला,हवेली का मंदिर ,, ऊपरी मंजिल पर दोनों तरफ बने कक्ष सब जैसे नंदिनी के बिना काटने को दौड़ रहे थे ।
सूर्य प्रताप कभी दिवस भर हवेली के भीतर जाते ही न थे ,रात होती तो बस शयन करने ही उनका हवेली के भीतर जाना होता था ।उनका तो पूरा समय हवेली के बरामदे में पडे़ अपने दीवान पर ही लोगों के साथ बीतता था ,भोजन भी दोनों समय का वे अपने इसी बरामदे में लेते थे ,, तो वो क्या जानते कि बेटी की विदाई के बाद घर में उपजी वीरानी क्या होती है !!
वो तो तब समझते जब उन्होने नंदिनी को बाप का प्यार दिया होता!!कभी उसे कलेजे से लगाकर उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेरा होता !!
वो तो आज भी अपने दीवान पर अत्यंत क्रोध में बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे कि शीघ्र ये सब कार्य निपटें और शिव प्रताप भानु की खबर लूँ ,,,
सूर्य प्रताप के मन की मुराद पूरी हुई और शिव प्रताप भानु सब बर्तन, भट्ठी वगैरा पहुँचाकर हवेली के बरामदे में पहुँचा ही था कि सूर्य प्रताप किसी भूखे शेर की भाँति दहाडे़--" इधर,,इधर मेरे सामने आकर खडे़ हो दानवीर कर्ण के खानदानी ,,,"
दिव्य प्रताप भानु और गोपी के प्रसन्नता के मारे हँसी छूटने वाली थी मगर दोनों ने एक दूसरे का मुँह दबाकर हँसी को रोका और बरामदे के बाहर परिसर में कुर्सी पर बैठे आनंद लेने लगे --
शिव प्रताप भानु पिता सूर्य प्रताप भानु के समक्ष खडा़ हो गया अपने हाथ पीछे बाँधकर ,,तब तक श्रीधन भी सारे कार्य निपटाकर बरामदे में पहुँच गया और वो सूर्य प्रताप भानु के चरण चापण करने लगा ।
" हाँ तो क्या आप बताएंगे कि आपको अपनी ही हवेली में चोरी करते हुए लाज न आई !!" सूर्य प्रताप ने गरज कर शिव प्रताप भानु से पूछा ।
"चोरी !!" शिव प्रताप भानु ने अपने झुके सिर को उठाकर पिता की तरफ देखकर हैरानी से कहा ।
"जी हाँ चोरी ,, किसी को बिना बताए उसकी अलमारी से सामान निकालना चोरी ही कहलाता है ।" सूर्य प्रताप भानु ने कहा ।
" पिताजी ,पहली बात तो किसी नहीं वो मेरी माँ की अलमारी है और दूसरे वो जेवर मेरी ही भावी पत्नी के लिए रखे थे तो मैं उसे अपनी बहन को दे दिया तो क्या अपराध किया ??" शिव प्रताप भानु ने निर्भीकता से कहा।
"हाय !हाय! पिताजी देखिए तो आपसे जुबान लडा़ रहे हैं दादा ,क्या मजाल जो मेरी जुबान आपके समक्ष खुले ,आखिर पिता का सम्मान भी कोई चीज़ है !!" दिव्य प्रताप ने आग में घी डाला ।
" माँ की अनुमति ली !!उससे पहले मेरी अनुमति लेना आवश्यक न समझा !! अभी जब तक मैंने अपना सब तुम दोनों में बाँटा नहीं तब तक किसी भी चीज़ पर तुम दोनों का कोई अधिकार नहीं है,अभी जो है सब मेरा है और मेरी चीज़ मुझसे बिना पूछे तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई किसी को देने की !!" सूर्य प्रताप क्रोध में लाल होते उठकर तैश में खडे़ होकर गरजे ।
" पिताजी आपसे पूछता तो क्या आप अनुमति दे देते !!और मैंने 'किसी' को नहीं अपनी ,अपनी बहन को वो जेवर दिए हैं ।"शिव प्रताप ने कहा ।
"चले जाओ मेरे सामने से इसके पहले कि मेरा हाथ उठ जाए तुम पर !!" सूर्य प्रताप ने गरज कर कहा और शिव प्रताप भानु हवेली के बाहर निकल कर चला गया ।
दिव्य और गोपी भी मन ही मन प्रसन्न होकर धीरे से खिसक लिए ।
समय का पहिया अपनी गति से घूम रहा था और आगे बढ़ता जा रहा था ।
सूर्य प्रताप के मन को जहाँ दिव्य प्रताप ने अपनी मीठी जुबान से जीत लिया था वहीं शिव प्रताप से सूर्य प्रताप भानु का भरोसा उठ गया था ।
दिव्य दिव्या का तो लाड़ला था ही ,दिव्या भी दिव्य को ज्यादा स्नेह देती थी ऐसे में शिव प्रताप का मन माँ और पिता दोनों से बहुत दूर हो गया था ।
दिव्य प्रताप भानु ने जुगाड़ लगाकर , घूसखोरी का फायदा उठाकर अधिकारियों की जेबें गर्म कर अपने लिए शिक्षक की नौकरी हथिया ली और शिव प्रताप भानु अपने खेतों ,जमीन इत्यादि के कार्यों में मन रमाए रहा ।
सूर्य प्रताप भानु के भी बल थकने लगे और उन्होने आधे में अधघर आधे में सब घर की उक्ति को चरितार्थ करते हुए अपनी हजारों एकड़ की जमीन में ढा़ई सौ एकड़ शिव प्रताप भानु को और बाकी की सारी जमीन दिव्य प्रताप भानु के नाम वसीयत करवा दी और हवेली के अपने कमरे की तिजोरी में रखे जेवरात अपने पास ही फिलहाल रखे ।
इस बात ने शिव प्रताप भानु के मन से उसके पिता को और दूर ही किया।
शिव प्रताप के हिस्से में जितनी जमीन आई उसपर वो पूरी लगन से खेती करवाने लगा और अपना सारा ध्यान सारी मेहनत उसपर करने लगा और दिव्य प्रताप भानु अपने काॅलेज से आकर गोपी के साथ अपने खेत,जमीन की देखरेख करवाने लगा जिसमें सूर्य प्रताप भानु के आदेश से श्रीधन तो साथ लगा ही रहता था ...........शेष अगले भाग में।