उस दिवस जो, विहग ने सूर्य प्रताप भानु और दिव्या प्रताप भानु के कक्ष से निकलकर हवेली के प्रांगण में बने अपने कोठर में बैठकर अपना सिर अपनी गर्दन पर टिका लिया था , तो उस दिवस से उसने सूर्य प्रताप भानु के द्वारा हवेली के बाहर पडे़ विशाल परिसर में छिटकाए चावल के दानों को हाथ न लगाया था ।
सूर्य प्रताप भानु के छितराए चावल वैसे ही पडे़ रहते थे और जब दिव्या भोजन करते समय अपनी थाली से भात छिटका देती तो वो विहग अपने कोठर से आकर बडे़ प्रेम से भात चुगने लगता था ।
"ओहो ,, वो विहग भी सूर्य प्रताप भानु के उस दिवस के व्यवहार से उनसे रुष्ट हो गया था !!" मादा गौरैया उड़ कर दूसरी जगह बैठती हुई नर गौरैया से पूछने लगी ।नर गौरैया भी उड़कर उसके समीप बैठता हुआ बोला -"हम पंक्षी इंसानों की बोली,हाव-भाव सब समझते हैं ना !! "
"हाँ पर वो विहग दिव्या से इतना लगाव क्यों करता था !!" मादा गौरैया विस्मय से पूछ बैठी ।
" उसकी कहानी दूसरी है ,, अभी जो कथा सुना रहा हूँ उसे तो चाव से सुनो", नर गौरैया ने मादा गौरैया से कहते हुए आगे सुनाना प्रारंभ किया -- सूर्य प्रताप भानु बाहर पडे़ विशाल परिसर में बैठकर अपने खेत,बाग से संबंधित सारे कार्यों का हिसाब रखने में व्यस्त रहते थे , खेतों से कितना अन्न घर लाना है ,कितना मण्डी में विक्रय करवाना है , खेतों के लिए बीज का प्रबंध, खाद,सिंचाई,गुडा़ई, करवाना, खेतों में कार्य करने वाले लोगों का हिसाब-किताब , वे सब स्वयं ही करते थे ,
उन्हें इसके लिए मुनीम रखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी ,कारण उनका ये विचार था कि अभी तो मेरी देह में ही इतनी शक्ति है कि मैं स्वयं सब अपने निरीक्षण में करवाऊँ और हिसाब -किताब रखूँ और फिर दोनों पुत्र जवान हो जाएंगे तो वे सब सँभालेंगे ही ,,,,
उनके पास दिव्या के लिए समय ही न रहता दिवस भर ,और अपनी नवजात पुत्री को तो वे देखते भी नहीं थे।
अपनी हवेली के बाहर पडे़ विशाल परिसर में ही वे लोगों के साथ बातचीत करते ,जो मंत्रणा करनी होती थी वो करते ,खेतों में जो काम करते थे ,उनसे कुछ कहना,बताना, या उनको कुछ कहना होता वो भी सब वहीं बात होती रहती थी ।
शिव प्रताप भानु अपने पिता के साथ बराबर बैठकर सारी बात बहुत ध्यान से सुनता व समझता था ,उसे पढा़ई-लिखाई में जरा भी रुचि न थी पर खेतों के लिए कौन बीज ज्यादा उपयोगी हैं ,किस फसल की ज्यादा अच्छी पैदावार हो रही है ,,वो सब वो सुनकर समझने में रुचि दिखाता था ।
दिव्य प्रताप भानु अपनी किताबें लिए पढ़ने के नाम पर अपनी ही मस्ती किया करता था ।
सुरतिया ने दिव्या की मालिश कर करके उसकी क्षीणता को दुरुस्त कर दिया था । श्रीधन सूर्य प्रताप भानु की सेवा में रहता ,सुरतिया दिव्या की सेवा में रहती हुई उसकी बेटी की भी देखरेख करती थी और सुरतिया का बेटा हवेली में यहाँ वहाँ अकेले खेला करता था । दिव्य प्रताप भानु उसे दूर से खेलते हुए देखा करता था ।
धीरे -धीरे कर जहाँ एक तरफ दिव्या की बेटी नंदिनी बडी़ हो रही थी वहीं सुरतिया के बच्चा होने का समय नज़दीक आ रहा था ।
आठवां महीना था और सुरतिया को गृह कार्य करने में दिक्कत के चलते दिव्या ने धीरे से एक रात्रि सूर्य प्रताप भानु के कानों में बात डाली थी कि सुरतिया अब कार्य करने में असमर्थ हो रही है और मुझे नंदिनी को सँभालना होता है तो ऐसे में हवेली का भीतरी कार्य श्रीधन से करवा लिया जाए जब तक सुरतिया असमर्थ है या थोडे़ समय के लिए कोई दूसरी नौकरानी रख ली जाए ।
पर सूर्यप्रताप भानु से दिव्या के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया था ये कहकर कि थोडे़ समय की बात है ,जैसे निपट पाए निपटाओ मैं हवेली में भीतर किसी और को प्रवेश न दे सकता हूँ ।
विवश होकर दिव्या ही सारे गृहकार्य करने लगी ।जब वो कार्य कर रही होती थी तब शिव प्रताप भानु अपने बडे़ भाई होने का बखूबी परिचय देता हुआ अपनी बहन नंदिनी को बहुत अच्छे से सँभालता था ।
नंदिनी रोती तो अपने खिलौने उसे दिखाकर ,गोद में घुमाकर उसको चुप कराता था वहीं दिव्य प्रताप भानु ,दादा की गोद से ही बहन को पुचकार लेता मगर अपनी गोद में लेकर उसको झुलाना उसे बहुत बोरियत वाला कार्य लगता था ।
बुड्डा अपनी चारपाई पर पडा़ अपनी बुड्डी को याद कर आँसू बहाता रहता था ।बेटा और बहू मजदूरी करने जो घर से जाते तो सीधे संध्या को ही आते थे ।भोर में रोटी सब्जी बनाकर अपने लिए पोटली में ले जाते और बुड्डे बाप का खाना उसके पास ही ढ़ककर रख जाते थे ।
संध्या में जब आते तो सीधे अपने कमरे में जाकर आराम करने लगते ,अपने बुड्डे पिता के पास तो उनके पास इतना भी समय न था कि दो घडी़ बैठकर हाल-चाल लें ।बुड्डे के पास अपना मन हल्का करने को ,दो बात करने को कोई न था ,अगर कुछ उसके समीप था तो वो थीं बस कचोटती तनहाइयाँ ,,,,
दोपहर हो गई थी ।मादा गौरैया और नर गौरैया एक घर से चुग्गा चुगकर उस घर की छत तक फैले हुए वृक्ष की शाखा पर विश्राम करने लगे थे ।
"हाँ तो आगे सुनाइए ना !" मादा गौरैया ने नर गौरैया से कहा ।
नर गौरैया आगे की कहानी सुनाने लगा --- वो समय भी आ गया था जब सुरतिया ने एक स्वस्थ बेटी को जन्म दिया था ।सुरतिया व श्रीधन के हर्ष का ठिकाना न था ।दिव्या भी सुरतिया के लिए बहुत खुश थी ।
समय बीत रहा था और सुरतिया की बेटी भी बडी़ होने लगी थी , अब सुरतिया की बेटी को उसका बेटा गोपी सँभालता था और सुरतिया फिर से हवेली के भीतर के सारे कार्य करती और बीच बीच में अपने बच्चों को भी देखे रहती थी ।
सूर्य प्रताप भानु और शिव प्रताप भानु को बाहर के परिसर में बैठे देखकर नंदिनी बाहर खेलने पहुँच जाती तो सूर्य प्रताप भानु उसे फककार कर भगा देते -" ऐ लड़की भीतर जाकर खेल ,हवेली के बाहर जहाँ चार आदमी बैठे हों वहाँ घर की औरतें न मँड़राती हैं !!"
नंदिनी को पिता की बात न समझ आती पर उसका बाल मन ये अवश्य समझ जाता कि मेरे पिता मुझे जरा भी स्नेह न करते हैं ।
शिव प्रताप भानु को पिता द्वारा अपनी बहन को फटकारना,उसकी उपेक्षा करना बहुत खल जाता था...........शेष अगले भाग में।