गोधूलि बेला होने वाली है ।गोधूलि बेला में चरवाहे अपने गोवंशों को घर ले जाते हैं, भगवान भास्कर अपना उदास,क्लांत, मुख लिए पश्चिम में जाते हैं और विहग अपने नीड़ की तरफ लौटते हैं ,ऐसे ही गोधूलि बेला में गौरैया दंपत्ति अपने नीड़ की तरफ उडा़ने भर रहे थे ।
अपने नीड़ में पहुँचकर नर गौरैया अस्थाचल सूर्य को देखने लगा ।
" ये आप नित्य ही अस्थाचल सूर्य को ऐसे क्यों देखते क्या सोचते रहते हैं !! ऐसी क्या खास बात है अस्थाचल सूर्य में ,, मुझे न बताएंगे !!"मादा गौरैया बहुत समय से देख रही थी कि उसका स्वामी नर गौरैया अस्थाचल सूर्य को बहुत ध्यान से देखता कुछ सोचता रहता है ,आज हिम्मत कर वो पूछ ही बैठी थी ।
"जानती हो ,जब भगवान भास्कर उदय होते हैं ,आकाश में अपनी रश्मियाँ बिखराते ,आग उगलते हैं जिससे जनजीवन ग्रीष्म से त्रस्त हो जाता है , ऐसा आभास होता है कि जैसे सूर्यदेव को अभिमान हो जाता है कि मैं ही हूँ जो अपने प्रकाश से संसार को प्रकाशमान कर रहा हूँ ,, पर जब उनकी शक्तियाँ क्षीण होने लगती हैं ,वे शिथिल होते जाते लुप्त होने के कगार पर आते हैं तब उनकी रश्मियाँ भी अपना रूप परिवर्तित कर लालिमायुक्त होकर उनका साथ देने में असमर्थता प्रकट करती हैं और तब कोई उन्हें प्रणाम तक न करता है ,, मानव जगत की यही रीति है ,,," नर गौरैया मादा गौरैया से बोला ।
"मानव जगत की रीति !! ऐसा क्यों कह रहे हैं आप !! बहुत समय से देख रही हूँ कि आप कहीं खोए खोए रहते हैं , कोई बात है !!मुझे न बताएंगे !!"मादा गौरैया ने नर गौरैया की तरफ देखकर पूछा ।
पर नर गौरैया अपने में ही खोए हुए बोला -"हम तो विहग हैं ,, अपने चूजों को उड़ने लायक बनाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर अपनी दुनिया में मस्त,व्यस्त हो जाते हैं मगर ये इंसान ,,, इनके बच्चे अपनी उडा़ने भरकर इन्हें छोड़कर चले जाते हैं ,, जिसके लिए कहीं न कहीं उत्तरदाई ये इंसान ही होते हैं ।"
"आप पहेलियां क्यों बुझा रहे हैं !! आपके मन में कुछ तो चल रहा है ,,, स्पष्ट बताइए ना !!" मादा गौरैया अधीर होकर बोली ।
"चलो आज तुमको एक दंपत्ति की कथा सुनाता हूँ ,, एक सच्ची कथा ,, सुनना चाहोगी !!" नर गौरैया ने पूछा।
"हाँ पर उससे पहले ये तो बताइए कि जो कथा आप सुनाने जा रहे हैं वो आपने किससे सुनी !!" मादा गौरैया ने पूछा ।
" तुम पहले कथा तो सुनो बाद में वो भी बता दूँगा ।" नर गौरैया बोला और वो मादा गौरैया को कथा सुनाने लगा ---
विलासपुर में एक बहुत बडी़ हवेली थी ,उस हवेली में अपने पुरखों से विरासत में मिली हजारों एकड़ भूमि के स्वामी अच्छे-खासे स्वास्थ्य के धनी, भरे हुए चेहरे , चौडे़ मस्तक पर तिलक लगाए घनी मूछों वाले ,श्वेत धोती व बादामी कुर्ता धारण किए सूर्य प्रताप भानु अपनी हवेली के बाहर पडे़ विशाल परिसर में बने बरामदे में बैठे हुक्का गुड़गुडा़ रहे थे।हुक्का गुड़गुडा़ते हुए सूर्य प्रताप भानु ने समीप खडे़ अपने मरियल से सेवक श्रीधन से पूछा --"भीतर से कोई सूचना न आई श्रीधन !!"
गन्ने के चुसे हुए चीफुर की भाँति दुबले- पतले श्रीधन ने अपने दोनों हाथ जोड़कर कहा -"मालिक वो सुरतिया भीतर ही है ,,जैसे ही कोई सूचना होगी वो तुरंत मुझे सूचित करेगी और मैं आपको बताऊँगा ।"
कोई दस मिनट बाद भीतर से सुरतिया ने अपनी साडी़ का पल्लू अपने हाथ से मुँह में दबाए हुए श्रीधन को इशारा कर अपने पास बुलाया और उसके बाद श्रीधन अपने स्वामी सूर्य प्रताप भानु के समीप खडे़ होकर दोनों हाथ जोड़कर बोला --" मालिक , कन्या का जन्म हुआ है ।"
इतना सुनते ही सूर्य प्रताप भानु ने हुक्का गुड़गुडा़ना छोड़कर,हुक्के को झिटकते हुए अपने समीप रखे चावलों को विहग की तरफ छिटकाते हुए क्रोध में कहा --"अरे तो सुरतिया से कहो कि श्रीमती जी उसका टेंटुआ दबा दें ,,,, लौंडिया जनी हैं !!
मेरे दोनों बाजुओं से मेरी ताकत तो मेरे दोनों सपूत शिव प्रताप भानु और दिव्य प्रताप भानु हैं ,,, पर ये लौंडिया आ गई मेरी छाती पर मूँग दलने !!हुंह् ,,,और आवेश में उठकर भीतर चले गए।
"दाना चुगते विहग को स्वयं पर क्रोध न आया !! कि मैं कैसे लोगों का दिया चुग्गा चुग रहा हूँ !!
दोनों पुत्र दो भुजाएं ,, और पुत्री का टेंटुआ दबा दो !!
पुत्र और पुत्री में भेदभाव तो ये मनुष्य ही कर सकते हैं !!
हम पंक्षी तो नहीं !!" मादा गौरैया ने कथा सुनाते नर गौरैया को मध्य में रोक कर आवेश में कहा ।
"अवश्य आया होगा तभी तो
सूर्य प्रताप भानु को आवेश में भीतर जाते देख चुग्गा चुगना छोड़ वो विहग उनके पीछे -पीछे भीतर भागा जहाँ मालकिन अपनी शिशु कन्या को अपने समीप लिटाए हुए थीं और उस शिशु कन्या के दोनों भाई शिव प्रताप भानु और दिव्य प्रताप भानु बडे़ लाड़ से अपनी नवजात बहन को निहार रहे थे । , तू आगे सुन " नर गौरैया ने मादा गौरैया से कहते हुए कथा आगे सुनाते हुए कहा --
जहाँ शिव प्रताप भानु आठ बरस का था वहीं दिव्य प्रताप भानु छह बरस का था ,दोनों के स्वभाव एक दूसरे से बिलकुल विपरीत थे ।शिव प्रताप भानु को अपने खेत,बाग का निरीक्षण करना भाता था वहीं दिव्य प्रताप भानु हवेली में बैठे मस्ती किया करता था ,दोनों ही बालक थे मगर पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं ,,,
शिव प्रताप भानु छोटे से ही अपने नित्य कार्यों को स्वयं कर अपने जिम्मेदार होने का परिचय देता था वहीं दिव्य प्रताप भानु ,, आलसी प्रकृति का ,अपने कार्य अपनी माँ से ही करवाता था ,,
सूर्य प्रताप भानु को दो पुत्रों को पाकर बहुत निहाल थे मगर पुत्री का जन्म उनके मुँह की मिठास में जैसे नीम की कड़वाहट घोल गया था ।
" ये लौंडिया जनी हैं आप !! लौंडिया !! लाइए इसको किसी नदी ,नाले में श्रीधन से फिंकवा दें,, पाप आकर जन्म ले ली है ,, जितना जोड़ जोड़ कर रखे हैं अपने सपूतों के लिए वो तो ये ही ले जाएगी ,, हम मरेंगे तो कंधा भी हमारे ये सपूत ही देंगे ,,, ये लौडिया तो किसी काम की नहीं होगी ,, बैठे बैठे बस हमारी संपत्ति को चरेगी,, लाइए ,, इधर लाइए ।" सूर्य प्रताप ने क्रोध में भरकर अपनी श्रीमती दिव्या भानु प्रताप की तरफ हाथ बढा़ते हुए कहा ........शेष अगले भाग में ।