" उफ़ ! ये दिव्य तो बहुत ही बुरा इंसान है, अपने ही भाई को फंसा रहा है जबकि उसकी कोई ग़लती ही नहीं इस सब में !!" मादा गौरैया ने नर गौरैया से कहा ।
" हां ,ये इंसान और इनकी प्रकृति ऐसी ही होती है ,ये अपने फायदे के लिए अपनों को भी न छोड़ते , चलो आगे सुनाता हूॅं--कहते हुए नर गौरैया ने आगे की कहानी सुनानी प्रारंभ की --
दिव्य प्रताप हवेली के भीतर जाकर शिव प्रताप भानु को बाहर बुलाकर आया और उसे देखते ही सूर्य प्रताप भानु ने अत्यंत क्रोध में भरकर उससे कहा --" तुमने आज अपनी सभी हदें पार कर दीं शिव ! आज तक मेरी हवेली में किसी पराए पुरुष का प्रवेश न हुआ था पर आज तुमने वो भी करवा दिया ,, तुमने श्रीधन को हवेली में चोरी करने भेजा !! ........ शिव प्रताप भानु को कुछ समझ न आ रहा था कि पिताजी ये क्या कहे जा रहे हैं !!
उसने कहा -" मैं कुछ समझा नहीं !"
सूर्य प्रताप भानु ने अपनी बात जारी रखी -- उस नंदिनी की मदद करने के लिए तुमने श्रीधन को दिव्य प्रताप भानु के कक्ष में भेजकर उसकी तिजोरी से पाॅंच हजार रुपए चोरी करवाए !!"
"ये आप क्या बोले जा रहे हैं !! हाॅं जब मैं कक्ष में लेटा था तब मुझे ऐसा लगा था कि हवेली के गलियारे से तेज़ी से कोई निकल कर गया है ,मुझे लगा कि श्रीधन काका हैं मगर फिर मैंने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है !!मेरा वहम होगा,,, पर आप जो कह रहे हैं मैंने ऐसा कुछ न किया है !!" शिव प्रताप ने कहा ।
"मालिक इसमें शिव बाबू को कहीं हैं ही नहीं ,,जो कुछ किया मैंने किया है , मालिक..."श्रीधन आगे कुछ बोलता उसके पहले ही सूर्य प्रताप भानु ने एक छड़ी उठाई और श्रीधन को गिराकर मारते हुए बोले --" गन्ने के चीफुर तुझे तो आज छोड़ूंगा नहीं ,, तेरी इतनी हिम्मत,,,जिस थाली में खाया उसी में छेद किया !!नमकहराम,, मेरी हवेली में चोरी करेगा,, चोरी करेगा....
सूर्य प्रताप भानु की आवाज सुनकर हवेली के भीतर से दिव्या,मानसी,कनक भी बाहर आ गईं और गोपी दौड़कर मां सुरतिया को बुला लाया था ।
न दिव्या,मानसी व कनक समझ पा रही थीं कि ये हो क्या रहा है और न ही सुरतिया .... शिव प्रताप ने आगे बढ़कर कहा -"छोड़ दीजिए काका को "और दिव्य भी बनावटी सहानुभूति दिखाता हुआ चिल्लाने लगा -" छोड़ दीजिए काका को पिताजी "
सूर्य प्रताप श्रीधरन को बेतहाशा मारते हुए पैरों से ढ़केलते हुए हवेली के बरामदे से बाहर करते हुए कहते जा रहे थे --चोरी करेगा!मेरी हवेली में चोरी करेगा !!
"मालिक,मुझे छोड़ दीजिए मालिक, मालिक नंदिनी बिटिया बहुत मुसीबत में है ,उसे रुपयों की सख्त जरूरत है , मैं उसे ये रुपए सूरतपुर दे आऊॅं फिर चाहे तो मार-मार कर मेरी जान ले लीजिएगा पर अभी छोड़ दीजिए मालिक ।" श्रीधन गिड़गिड़ाया और 'नंदिनी मुसीबत में है 'ये सुनकर शिव प्रताप भानु का ह्रदय हक्क से रह गया और वो सोचने लगा --ओह तो नंदिनी की खातिर श्रीधन काका ने हवेली में प्रवेश कर दिव्य की तिजोरी से रुपए निकाले !!
श्रीधन को लातों से ढ़केलने के कारण उसके पैजामें की काॅंख में दबे रुपए निकलकर गिर गए ।
सुरतिया को सारी बात समझ आ गई और वो रुपए उठाकर सूर्य प्रताप भानु की तरफ बढा़ते हुए रोती हुई बोली -"मालिक ये रुपए ले लीजिए मगर इन्हें छोड़ दीजिए,मत मारिए मालिक ,मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूॅं ,मैं आपके पैर पड़ती हूॅं-- मालिक इन्हें छोड़ दीजिए।"
अब मानसी व कनक को भी समझ आया था कि हवेली के गलियारे का दरवाजा खुला कैसे पड़ा था ।
सूर्य प्रताप के क्रोध का पारावार न था ।वे श्रीधन को मारते ,हवेली से बाहर ढ़केलते हुए कहते जा रहे थे -" मेरी बहू के कक्ष में घुसेगा!तेरी औकात इतनी बढ़ गई !
निकल , निकल बाहर ...... "
"मालिक मैंने छोटी बहू रानी की तरफ आंख उठाकर भी न देखा, ठाकुर जी की शपथ खाकर कह रहा हूं ,मैंने जो किया वो नंदिनी बिटिया की मदद करने के लिए किया ।" श्रीधन गिड़गिड़ाया
उसके मुंह से खून निकलने लगा था और सूर्य प्रताप की छड़ी टूट गई थी।
"बस करिए !! काका की जान ही ले लेंगे क्या ???" शिवप्रताप श्रीधन के ऊपर झुक कर पिता सू्र्य प्रताप से तेज स्वर में बोला ।
"निकल जा अपने परिवार सहित मेरे दिए हुए घर से और मेरी आंखों के आगे धोखे से भी पड़ गया तो तेरी बोटी-बोटी काटकर कुत्तों को खिला दूंगा।" सूर्य प्रताप भानु ने टूटी हुई छड़ी का टुकड़ा हाथ से फेंकते हुए कहा ।
शिव प्रताप भानु ने श्रीधन को उठाया और उसकी मरहम पट्टी कराने अस्पताल ले गया ,पीछे ही पीछे बिलखती हुई सुरतिया भी गई।
गोपी को ये सब देखकर अपने पिता से चिढ़ हो गई थी कि मेरे पिता ने हवेली में चोरी की ,वजह चाहे जो भी हो ,,,,
वो अपना मुंह लटकाकर हवेली के सामने वाले शिव मन्दिर में जा बैठा ।
"ये पिताजी ने सही न किया !! मतलब चोरी शिव दादा ने कराई और पिटाई और घर निकाला बेचारे श्रीधन काका को दे दिया ।" दिव्य प्रताप भानु ने गोपी के पास आकर बैठते हुए गोपी से एक तरफ झूठी सहानुभूति दर्शाई और दूसरी तरफ मन ही मन सोचकर प्रसन्न हो गया कि साॅंप भी मर गया और लाठी भी न टूटी , पिताजी की आज्ञा की अवहेलना न हुई ।
हवेली में जहां एक तरफ कनक अपने कक्ष में बैठी भुनभुना रही थी कि कैसी हवेली और नौकर है जो बहू के कमरे में घुसकर तिजोरी से रुपए निकाल ले गया नहीं दूसरी तरफ मानसी दुखित हो बैठी-बैठी सोच रही थी कि ननद जी मुसीबत में हैं और श्रीधन काका ने हवेली में न ही किसी को सूचित किया और नही किसी से रुपए मांगने की हिम्मत जुटा पाए,, चोरी पर उतर आए ,,वो भी इसी हवेली की बेटी की वजह से !!
शिव प्रताप भानु ने श्रीधन को अस्पताल में मरहम-पट्टी करवा कर सुरतिया से कहा -"काकी जब तक मैं वापस न आऊं तब तक आप और काका यहीं रहिएगा ,फिर मैं आप दोनों के रहने का कुछ प्रबंध करूंगा......शेष अगले भाग में।