"ये कैसा बंटवारा है पिताजी !! पूरी हवेली दिव्य प्रताप भानु की और जितना परिसर पड़ा वो सब मेरा !! मैं पहले अपने लिए घर बनवाऊं तब जा कर रह पाऊं !! "शिव प्रताप भानु ने हैरानी में भरकर पिता सूर्य प्रताप भानु की तरफ देखकर कहा ।
" क्यों उस चोर , गन्ने के चीफुर श्रीधन के लिए जो घर दिया था वो भी तो तुम्हारे हिस्से में आया है , जब तक अपने लिए घर न बनवा पाओ तब तक उसमें रहो ना और अच्छे से सुन लो ,
तुमको जो दिया हूं तुम्हारे लिए इतना ही पर्याप्त है, क्या है ना कि कुत्ते को घी नहीं हजम होता है , तो तुमको इससे ज्यादा दे भी दिया तो तुम वो किसी न किसी को दान कर दोगे ,जो तुम्हारे हिस्से आया है उसे स्वीकार करो ।" सूर्य प्रताप भानु ने लापरवाही से एक नजर शिव प्रताप भानु को देखकर कहा ।
जहां एक तरफ इस पक्षपाती बंटवारे से
शिव प्रताप भानु की मन की पीड़ा से आंखें भर आईं वही दूसरी
तरफ दिव्य प्रताप भानु के खुशी का पारावार न रहा ,, और वो शिव प्रताप भानु की तरफ देखता हुआ पिता सूर्य प्रताप भानु से बोला -"पिताजी इस बरामदे से लेकर सामने पडे़ विशाल परिसर पर दादा का अधिकार तय हुआ है मगर मैं या कोई भी जो हवेली से बाहर जाना चाहेगा उसको निकास तो चाहिए इसलिए हवेली के मुख्य द्वार से इस बरामदे की सीध में सामने पड़े परिसर तक जाकर अंतिम छोर पर मैं अपना निकास द्वार रखूंगा।"
"क्या ?? तुम्हारे दिमाग ठिकाने पर तो हैं !! बरामदा मेरे हिस्से में ,बरामदे के सामने का पूरा परिसर मेरे हिस्से में जिस पर मैं अपना घर बनवाऊंगा तो तुम क्या मेरे घर के मध्य से अपना निकास निकालोगे !!" शिव प्रताप भानु ने खीज कर कहा ।
मानसी भी ये पक्षपाती बंटवारे का निर्णय सुनकर हत्प्रभ रह गई थी , दिव्या तटस्थ थी और कनक और ज्यादा अभिमान में फूल गई थी , तीनों ही खड़ी बहुत ध्यान से सारी बातचीत सुन रही थीं।
"हां तो दिव्य अपने पैर सिर पर रखकर हवेली से निकलेगा क्या ?? उसे निकासी भर का रास्ता तो तुम अपने में से दोगे ही !!" सूर्य प्रताप भानु ने त्योरियां चढा़कर शिव प्रताप भानु से कहा।
"पिताजी आप भूल रहे हैं कि हवेली के गलियारे से एक दरवाजा है जो बाहर की तरफ खुलता है ,, दिव्य अपना निकास उधर से रखे कि दूसरे के मे़ घुसेगा !!" शिव प्रताप भानु ने अब क्रोध में भरकर कहा ।
" नहीं पिताजी , उस पीछे के द्वार को अपना निकासी मुख्य द्वार बनाने पर मेरी हवेली की शोभा न बिगड़ जाएगी !! मुख्य द्वार सामने की तरफ होता है न कि पीछे .... "दिव्य प्रताप भानु ने कहा।
" सही कह रहा है दिव्य प्रताप भानु,,, तुम्हें अपने में से दिव्य प्रताप भानु को निकासी के लिए मुख्य द्वार बनाने के लिए जगह देनी ही पड़ेगी।" सूर्य प्रताप भानु ने आदेशात्मक लहजे में कहा और शिव प्रताप भानु ने पिता सूर्य प्रताप भानु से कहा -"ये तो सरासर अन्याय है ।" मगर सूर्य प्रताप भानु ने शिव प्रताप भानु को अपना हाथ दिखा दिया जिसका तात्पर्य था कि जो निर्णय हो गया वो हो गया ।
शिव प्रताप भानु ने आंखों में आंसू भरकर मां दिव्या को इस उम्मीद से देखा कि शायद मां कुछ तो पिताजी से कहेंगी मगर उसे निराशा ही हाथ लगी ,दिव्या ने एक शब्द न कहा और मानसी ने घृणा की दृष्टि दिव्या पर डाली और मन में सोचने लगी कि कैसी मां है जो बेटे के साथ अन्याय देखकर भी चुप है !!
कुछ क्षण वातावरण में चुप्पी पसरी रही फिर दिव्या ने अपनी चुप्पी तोडी़ और सूर्य प्रताप भानु के सामने अपना एक प्रश्न उछाल दिया --"इस सब में इस बात पर तो आपने कुछ निर्णय किया ही नहीं कि हम दोनों किसके पास रहेंगे और खाएंगे !!"
सूर्य प्रताप भानु कुछ कहते इसके पहले ही दिव्य प्रताप भानु बोल उठा -" अरे इसमें क्या निर्णय करना है पिताजी को !! पिताजी मेरे हिस्से में रहेंगे और मां आप तो दादा के ही साथ रहो वरना सदा की भांति दादा को ये लगेगा कि मां दिव्य को ही ज्यादा चाहती हैं इसलिए उन्होंने दिव्य के साथ रहना ही चुना ।"
" चलो ये भी निर्णय हो गया ,अब और कुछ न बचा जिसपर निर्णय करना बचा हो अब तुम दोनों समझ लो और अपने अपने हिस्से में संतुष्ट रहो ।" सूर्य प्रताप भानु ने उठते हुए कहा ।
दिव्या,कनक व मानसी हवेली के भीतर चली गईं और दिव्य व शिव प्रताप भानु भी हवेली के भीतर चले गए।
" चलो मानसी हम आज ही हवेली छोड़कर श्रीधन काका वाले घर में चले जाते हैं ,फिर वहां सामान व्यवस्थित कर अपने हिस्से पर घर बनवाना प्रारंभ करवा देंगे ।" शिव प्रताप भानु ने भारी मन से मानसी से कहा ।
"आप ऐसे मन छोटा मत कीजिए , कर लेने दीजिए पिताजी को पक्षपात , हमें जितना ,जो मिला हम उसी में खुश रह लेंगे , दुख तो इस बात का है कि मां ने इस संबंध में पिताजी से एक शब्द न कहा !! " मानसी ने सामान बांधते हुए शिव प्रताप भानु से कहा ।
अगले दिन भोर होते ही शिव प्रताप भानु और मानसी श्रीधन को दिए गए घर में सामान सहित रहने चले गए, दिव्या को भी निर्णयानुसार साथ जाना पड़ा ।
दो दिन ही बीते थे ,दिव्य प्रताप भानु ने कारीगर, मजदूर बुलाकर हवेली के मुख्य द्वार से बरामदे की सीध में होते हुए बरामदे के सामने पडे परिसर के अंतिम छोर तक दीवार उठवाकर एक बड़ा फाटक लगवा दिया ,जिसके बाद हवेली के बरामदे और उसके सामने के परिसर के बाएं हाथ का कुछ हिस्सा दिव्य प्रताप भानु के में चला गया ,अब शिव प्रताप भानु की बारी थी कि वो अपना घर बनवाए ।
शिव प्रताप भानु ने भी अच्छे कारीगरों से मिलकर बाकी बचे परिसर से होते मंदिर के पीछे तक अपना घर बनवाने प्रारंभ करवाने को कह दिया और उन्होंने भी शीघ्र आने को कहा ।कहने को तो मंदिर के आगे का परिसर भी शिव प्रताप भानु के हिस्से में आता था मगर वहां कुछ भी वो बनवा न सकता था क्योंकि मंदिर में पूजा करने कोई न कोई आता रहता था ,तो उसने मंदिर के आगे की तरफ का भाग लोहे की ग्रिल से करते हुए सामने लोहे का छोटा फाटक लगवाने का तय कर लिया ताकि जो भी मंदिर में पूजा करने आए वो फाटक खोल कर भीतर आकर पूजा कर फिर चला जाए ,...............शेष अगले भाग में।