नंदिनी हवेली के मुख्य दरवाजे की ओट से अपना मासूम मन लिए हुए बाहर बैठे पिता व दोनों दादा को देख रही थी।
सूर्य प्रताप भानु ने तो नंदिनी का विद्यालय में दाखिला तक न करवाया था ,नंदिनी दिव्य प्रताप भानु को जब पढ़ते देखती तो उससे कहती कि दादा मुझे भी पढ़ना है मगर दिव्य उसे ये कहकर भगा देता कि मेरी सिर मत खा ,जा पिताजी की अनुमति ले जाकर और वो मायूस होकर रोते हुए दिव्य प्रताप भानु के कक्ष से निकल जाती थी ,वो जानती थी कि सूर्य प्रताप भानु तो उसे अपने पास फटकने तक न देते हैं ,पढ़ने की अनुमति क्या देंगे !!
वो एक दिवस दिव्या के पास जाकर उसकी गोद में बैठकर बोली थी -"माँ मुझे भी छोटे दादा की तरह पढ़ना है,विद्यालय जाना है ।"
पर दिव्या ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए अपनी विवशता प्रकट की थी -"नंदिनी,मेरी बच्ची ,, तुम्हारे पिता तुम्हें पढा़ने की अनुमति कभी न देंगे और उनकी अनुमति बिना मैं कुछ न कर पाऊँगी ,,, औरत को सदा अपने पति के अधीन होकर रहना पड़ता है , उसकी इच्छा के विरुद्ध वो कुछ भी न कर सकती है ।
नंदिनी माँ दिव्या के कक्ष से रोते हुए निकली थी और शिव प्रताप भानु ने उसे रोककर उसके रोने का कारण पूछा था।
नंदिनी ने रोते हुए अपने पढ़ने की इच्छा प्रकट की थी और शिव प्रताप भानु ने श्रीधन को हवेली के सामने बने शिव मंदिर में बुलाया था ।
श्रीधन शिव मंदिर में जाकर उसके समक्ष खडे़ होकर बोला था -"बताइए शिव बाबू , मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?"
शिव प्रताप भानु ने श्रीधन से कहा था -" श्रीधन काका ,नंदिनी पढ़ना चाहती है और आप अच्छे से जानते हो कि पिताजी इसकी अनुमति कभी न देंगे , मैं पढ़ने में रुचि न रखता हूँ तो नंदिनी को कैसे पढा़ पाऊंगा ! दिव्य तो उसे अपनी किताबें छूने तक न देता है तो उसे पढा़ना तो बहुत दूर की बात है ,, आप कोई मार्ग दिखाएं ,मैं अपनी बहन की हर इच्छा पूर्ण करना चाहता हूँ ।"
श्रीधन ने हाथ जोड़ लिए थे कि "शिव बाबू मैं इस संबंध में आपको न कोई मार्ग दिखा सकता हूँ और न ही आपकी कोई मदद कर सकता हूँ ,मैं मालिक का सेवक हूँ ,उनका नमक खाता हूँ तो उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ न कर सकूँगा ।"और वो शिव मंदिर से चला गया था ।
शिव प्रताप भानु स्वयं बाहर जाकर पिता की नज़रों से बचाकर उसके लिए किताबें लाया था और उसे दी थीं और कहा था - "नंदिनी , काश मैं तुम्हें विद्यालय भेज पाता ,पर पिताजी को पता चल गया तो आफत आ जाएगी ! मैं तुम्हारे लिए चुपके से किताबें ले आया हूँ ,तुम इसे अपने पास रखकर खुश हो सकती हो ,पर किसी को पता न चलना चाहिए वरना मेरे पर बात आ जाएगी ।"
नंदिनी किताबें पाकर बहुत खुश हो गई थी और फिर उसने किताबें देख देखकर स्वयं समझना प्रारंभ कर दिया था ,पर शिव प्रताप भानु को जहाँ एक स्वयं पर बहुत क्रोध आ रहा था कि वो अपनी बहन के लिए कुछ कर न पा रहा है वहीं दूसरी तरफ उसके मन की मृदा में अपने पिता के लिए खटास का अंकुरण हो चुका था ।
" कैसा पिता था ये सूर्य प्रताप भानु जो अपनी बेटी को ही न पसंद करता था !! हम पंक्षी तो अपने बच्चों में कभी भेदभाव न करते !"
मादा गौरैया ने नर गौरैया के साथ अपने नीड़ की तरफ उडा़न भरते हुए विस्मय से कहा ।
"ये इंसान हैं ,ये अपनी ममता भी नापतोल कर अपने बच्चों में बाँटते हैं ,जिसको मन कहा उसे सीने से लगाते और जो न भाया उसका अधिकार ये काटते हैं ।"
नर गौरैया मादा गौरैया से कहते कहते हुए अपने नीड़ में बैठते हुए बोला था ।
नर गौरैया जितने चाव से मादा गौरैया को कथा सुना रहा था ,मादा गौरैया उतनी ही दिलचस्पी लेकर कथा का आनंद लेती थी ।
अगले दिवस नर गौरैया ने फिर आगे की कथा प्रारंभ की थी --
समय तीव्र गति से भाग रहा था ,बच्चे बडे़ हो रहे थे ।कुछ दिवस बीते कि सुरतिया की बेटी को छूत का रोग हो गया था , और ये जानकर दिव्या ने नंदिनी को अपने कक्ष में अपने पास बुलाकर धीमे से उसे सुरतिया की बेटी के पास जाने से मना कर दिया था पर नंदिनी अनसुना कर फिर भी सुरतिया की बेटी के पास एक दिवस खेलने जा ही रही थी कि शिव प्रताप भानु ने उसे अपने पास बुलाकर कहा था -"नंदिनी ,तुम काकी की बेटी के पास मत जाया करो ,अपने कक्ष में अपनी किताबों से अपना मन बहलाओ जाकर ।"
नंदिनी अपने कक्ष में चली गई थी ।सुरतिया के बेटे गोपी ने शिव प्रताप को ,नंदिनी को उसकी बहन के साथ खेलने से मना करते सुन लिया था जिसकी वजह से वो शिव प्रताप से चिढ़ने लगा था ।
गोपी था तो छोटा मगर वो बहुत ही खोटा था ,उसने शिव प्रताप और दिव्य प्रताप के रिश्ते में दरार करने का प्रथम प्रयास करने का निर्णय लिया था ।दिव्य प्रताप भानु करेला था और उस पर नीम चढा़ने का कार्य गोपी ने करते हुए दिव्य प्रताप भानु से कहा था -
"तुम बस किताबें चाटते रहना छोटे दादा , अनुत्तीर्ण तुम अगले वर्ष भी होगे ये मुझे पक्का यकीन है ,,, मालिक काका की जमीन ,जायदाद के कार्यों में तुम्हारा मन ढे़ला भर भी न लगता है और उसी का फायदा शिव दादा उठा रहे हैं !
देखना उसके अपने कार्य के प्रति समर्पण देखकर मालिक काका अपना सबकुछ उन्हीं के नाम कर देंगे और तुम ठन ठन गोपाल बने फिरते रहना ।"
दिव्य प्रताप भानु मुस्कुराकर बोला था -" तुम मुझे बुद्धू समझते हो ! जहाँ तुम्हारी सोच न जा सकती वहाँ मेरी सोच राज करती है ,, अभी शिव दादा को आराम से वो करने दो जो वो कर रहे हैं ,, उन्होने कल्पना भी न की होगी कि दिव्य के दिमाग में क्या चल रहा है ,,,
देखना ,ऐसा पासा फेंकूँगा कि पिताजी स्वयं अपने इन कार्यों से शिव दादा को फटकार कर अलग कर देंगे और मुझे ही सबकुछ देंगे ............शेष अगले भाग में।