सूर्य प्रताप भानु ने अपने दरवाजे पर राज प्रताप भानु और राग प्रताप भानु को आया देखकर उनसे कहा -" कहो शिव प्रताप के दूतों , आज शिव प्रताप की तरफ से क्या संदेश लेकर आए हो !!"
" चरण स्पर्श बाबा , हम दोनों आज आपसे एक अहम बात करने आए हैं ।" राज प्रताप भानु ने बाबा सूर्य प्रताप भानु के चरण-स्पर्श कर उनके पास बैठते हुए कहा।
" अच्छा, आज किस चीज के बंटवारे के लिए बात करने आए हो ?" सूर्य प्रताप भानु ने अपने सामने रखी चाय का प्याला उठाते हुए कहा ।
" बाबा , आप अपने ह्रदय पर हाथ रखकर कहें कि आपने अपने पुरखों से प्राप्त हजारों एकड़ जमीन में हमारे पिताजी को मात्र ढा़ई सौ एकड़ जमीन देकर उनके साथ अन्याय न किया !! बाकी की सारी की सारी जमीन दिव्य चाचा को दे दी !!
हमें उस जमीन का बराबर बंटवारा चाहिए ।
" हा हा हा !!! मूर्ख समझ रखे हो मुझे !! जो ढा़ई सौ एकड़ जमीन तुम्हारे पिताजी को दी वो भी तो उससे संभाली न जा रही है , पच्चीस एकड़ बड़ी बेटी को दान कर दी और पच्चीस एकड़ अभी मंझली शिवल्या को देने जा रहा है , मुझे बताया नहीं तो क्या मुझे पता न चलेगा !!
अभी तो एक पागल और ब्याहने को बैठी है उसे......." बस बाबा , हम आपका सम्मान करते हैं इसका ये अर्थ नहीं कि आपको हमारी बहन के लिए कुछ भी बोलने का अधिकार प्राप्त है !! आपको अधिकार प्राप्त होता यदि आपने मेरी बहनों को अपनी पोती समझ कर कभी स्नेह का एक कतरा भी उन्हें दिया होता !! हम यहां आपसे खैरात में जमीन मांगने नहीं आए हैं , अपना हिस्सा मांगने आए हैं जो सर्वथा उचित है ,, वो जमीन पुरखों की जमीन है और उस नाते उस पर हमारे पिता का भी बराबर का अधिकार है ।" राज प्रताप भानु ने उठकर तैश में कहा ।
दिव्य प्रताप भानु अवकाश में घर आए थे , राज प्रताप और राग प्रताप को घर आया जानकर वो बरामदे से ये सारी बातें सुन रहे थे , राज प्रताप भानु को यूं तैश में पिताजी से ऊंची आवाज में बोलता सुनकर वो बाहर आए और बोले -" वाह ! शिव दादा ने क्या संस्कार दिए हैं अपने बेटों को !! बाबा से कैसे बात करते हैं ये भी न पता है !!"
" आप संस्कारों की दुहाई न दें वही सही है दिव्य चाचा , आप अपने पिताजी पर कितना जान छिड़कते हैं ये हमें भली भांति ज्ञात है ।" राग प्रताप भानु ने खीज कर कहा।
दिव्यांश प्रताप भानु को भी पता था कि बाबा ने शिव ताऊ के साथ हर कदम पर अन्याय किया है , तिजोरी जेवरों से भरी है मगर शिव ताऊ को उनके हिस्से के जेवर तक न दिए जो वो शिवन्या के विवाह पर दे सकें , ये सब देखकर उसका मन अपने बाबा से बहुत खट्टा हो चला था ।
आज उसने तबीयत सही न होने के कारण अपने विद्यालय से अवकाश लिया था , बाहर से आते तेज स्वर सुनकर वो बाहर आया और राज प्रताप भानु के समीप पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए बोला -" बड़ो के मध्य बोलने की धृष्टता कर रहा हूं उसके लिए क्षमा चाहता हूं मगर बाबा राज दादा व राग कुछ गलत नहीं कह रहे हैं , पिताजी हों या शिव ताऊ ,दोनों आपके ही बेटे हैं और उस कारण आपको हर चीज में बराबर बंटवारा करना चाहिए ,वो अपने प्राप्त हिस्से का कैसे , कहां प्रयोग करते हैं इसकी उनको स्वतंत्रता है , अपने अधिकार से एक इंच भी अतिरिक्त अगर फिर वो चाहें और मांगे तब आपका उन्हे कुछ कहना बनता है पर अभी तो वो अपना ही मांग रहे हैं!!"
" तुमको क्या मैं लंकापति रावण लगता हूं जो तुम विभीषण की भांति मुझे ज्ञान देने चले आए हो !! तुम्हारी तबीयत नहीं सही है ना तो भीतर जाकर आराम करो या फिर अपने विद्यालय चलते बनो ।" सूर्य प्रताप भानु ने तल्खी से कहा ।
" पिताजी सही कह रहे हैं ,तुम भीतर जाओ दिव्यांश।" दिव्य प्रताप भानु ने कहा ।
दिव्य प्रताप भानु भीतर चला गया ।
" तुम दोनों का हो गया हो तो तुम दोनों भी अपने घर जा सकते हो ,मैं अपनी बात कह चुका हूं ।" सूर्य प्रताप भानु ने कहा ।
'तुमको मैं क्या लंकापति रावण लगता हूं ' हुंह ! आचरण तो वही हैं !!
राग प्रताप भानु ,दादा राज प्रताप भानु के साथ बाबा के घर से निकलते हुए भुनभुनाया ।
पहले राग प्रताप भानु और उसकी पत्नी दामिनी की वो बातें सुनना फिर राज प्रताप भानु और राग प्रताप भानु का पिता सूर्य प्रताप भानु के घर से आकर सारा वृत्तांत बताना शिव प्रताप भानु के मन पर असर कर गया था ,वो अपने कक्ष में कक्ष की छत को एकटक देखते हुए लेटे थे ।
" चलिए रुचिरा बहू भोजन लगाने जा रही है ।" अगले दिवस की दोपहर को मानसी ने कहते हुए कक्ष में प्रवेश किया तो शिव प्रताप भानु को यूं एकटक कक्ष की छत की ओर देखते हुए देखकर पूछा -" क्या बात है ? आप कुछ परेशान लग रहे हैं !!"
" नहीं तो ! चलो भोजन कर लिया जाए ।" शिव प्रताप भानु ने मानसी से कहा और अपने बिस्तर से उठकर मानसी के साथ बाहर आ गए ।
" श्रीधन काका , मेरे साथ जो अन्याय पिताजी ने किया वो मैंने सह लिया पर अब बात मेरे बच्चों की है , उन्हें परेशान होते मुझसे देखा न जाता है , मानसी से कुछ भी कहकर उनका मन व्यथित न करना चाहता हूं ।" शिव प्रताप भानु श्रीधन को भोजन देकर उससे कहते हुए अपनी नम आंखों को पोछने लगा ।
" आपकी पीड़ा समझ सकता हूं शिवबाबू , मालिक पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं जो अपनों के लिए भी उनका ह्रदय न पसीजता है , जिस दिव्य बाबू को वो सब सौंपे हुए हैं वो कितने निष्ठुर हैं ये वो जान कर भी अंजान बने हुए हैं , मैं भूला थोडे़ ही हूं , जो किया था मैं ने किया था , पर उन्होने आप पर दोष मढ़कर आपको उनकी नज़रों से गिरा दिया !! आपको तो कुछ पता भी न था पर ईश्वर सब देख रहा है शिवबाबू आप बिलकुल भी निराश न होइए ,वही ईश्वर ही सब सही करेगा ।"..........शेष अगले भाग में।