श्रीधन दिव्य से कुछ भी कहने की हिम्मत न कर सका और दिव्य की तरफ देखकर -"नहीं ,कुछ नहीं बेटा"कहकर वापस हवेली के पीछे बने अपने घर लौट गया ।श्रीधन के घर जाने के दो रास्ते थे ,एक हवेली के गलियारे से होते हुए एक दरवाजा था जो बाहर खुलता और उसके सामने ही, हवेली से मिला हवेली का ही भाग उसका घर था ,सुरतिया हवेली का कार्य खत्म करके इधर से ही अपने घर जाती थी और दूसरा हवेली के सामने शिव मंदिर के सामने से होकर हवेली की बगल से होते हवेली के पीछे जाकर ,, श्रीधन इधर से अपने घर जाता था ।
दिव्य प्रताप भानु उड़ती हुई चिडि़या के पर गिन लेता था ,, श्रीधन के चेहरे के हाव-भाव देखकर वो समझ गया कि श्रीधन काका मुझसे कुछ कहने आए थे मगर हिम्मत न जुटा पाए कहने की ,, वो सोचने लगा -- कैसे पता करूँँऊऊं !! और फिर स्वयं से बोला --अरे वो है ना अपना लंगोटिया यार गोपी ,, उसके माध्यम से पता करता हूँ ,,
रात्रि होने वाली थी ,दिव्य प्रताप भानु कनक से कहकर कि -" अभी थोडी़ देर बाहर हवा खा लूँ फिर आकर भोजन करता हूँ " हवेली के बाहर जाकर श्रीधन के घर के बाहर से गोपी को आवाज लगाई ।
गोपी बाहर आया और बोला -"हाँ दिव्य दादा ,कहीं चलना है साथ में ,,, चलिए चलते हैं ....."
"अरे कहीं न चलना है ,,तुझसे एक बात पूछनी थी !!" दिव्य ने गोपी के कंधे पर हाथ रखकर उसको अपने साथ उसके घर से अलग ले जाता हुआ बोला ।
"हाँ तो पूछिए ना ,, दादा !!"गोपी ने दिव्य प्रताप की तरफ देखकर कहा ।
" ये बता कि श्रीधन काका आजकल इतने परेशान क्यों दिख रहे हैं !!कोई बात है क्या ??" दिव्य ने एक जगह रुककर गोपी के सामने खडे़ होकर पूछा ।
"परेशान !! पिताजी ,,, मुझे तो न पता !!"गोपी ने मुँह बिचका कर कहा ।
" अरे कैसा पुत्र है तू जो तुझे अपने पिता के चेहरे की वो शिकन न दिखी जो मैंने देख ली !! चल आज रात पता कर मुझे फौरन सूचित कर ।"दिव्य ने गोपी के सिर पर एक चपत मारते हुए कहा ।
"अच्छा !! तो मैं तुरंत पता करके आपको बताता हूँ।"गोपी ने कहा और फिर दोनों अपने -अपने घर चले गए।
गोपी आकर अपने बिस्तर पर आँखें मूँद कर लेट गया जिससे श्रीधन व सुरतिया को लगे कि वो सो गया है ।श्रीधन व सुरतिया अपने -अपने बिस्तर पर कमरे की छत की ओर शांत ,मूक हो ताक रहे थे ।श्रीधन की आँखों की कोर से अश्रु ढु़लक रहे थे और उसके मन में नंदिनी की मुसीबत तैर रही थी जिसको वो अपनी मदद रूपी नौका देकर बचाना चाहता था ।
सुरतिया ने श्रीधन की तरफ देखा फिर उठकर उसके समीप बैठते हुए पूछा -"क्या कुछ उपाय सूझा !! कैसे करेंगे नंदिनी बिटिया की मदद !! हमारे हाथ में नगद रुपए तो रहते नहीं और शिव बाबू से माँगना अर्थात उन्हें सारा सच बताना !! दिव्य बाबू से तो उम्मीद ही न की जा सकती है !!"
" तुम चिंता न करो सुरतिया और जाकर सो जाओ,भोर में तुम्हें फिर रात्रि होने तक हवेली के भीतर कार्य करना है ,,मैं कल तक अवश्य रुपयों का इंतजाम कर लूँगा " श्रीधन ने सुरतिया की तरफ देखकर कहा और फिर आँखें मूँद लीं जिससे सुरतिया को लगे कि 'ये' सोने का मन बना रहे हैं ।
सुरतिया जाकर लेट गई ।श्रीधन की आँखें अश्रु बहाती रहीं ,,,,
श्रीधन ने जो सोचा था ,वो सुरतिया को बताना न चाहता था ,, कि सुरतिया को बताऊँगा तो वो मुझे जो मैंने सोचा वो करने न देगी और मेरे पास इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प भी तो नहीं है !!
दिव्य को सारी बात समझ आ गई और वो भोर की प्रतीक्षा करने लगा कि भोर हो और दिव्य दादा को सूचित करूँ....
कनक और दिव्य प्रताप मनाली से आ गए थे मगर कनक का चूल्हा पूजन न होने के कारण मानसी ही अभी तक पाकशाला सँभालती आई थी ,वो भी मुस्कुराकर मन ही मन सोच रही थी कि चलो कोई बात नहीं जहाँ इतने दिन वहाँ और कुछ दिन सही फिर तो कनक उसके साथ पाकशाला में हाथ बँटाएगी ही !!
सुंदर सुहावनी भोर ने आकर हवेली की दीवारों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और दिव्य प्रताप भानु अपने विद्यालय के लिए निकलते हुए गोपी को मंदिर के चबूतरे पर बैठे हुए देखकर पूछने लगा -" कल कुछ कार्य सौंपा था तुझे !!"
गोपी मुस्कुराता हुआ उठकर खडा़ हुआ और फिर बोला -"हाँ तो मैंने सब पता लगा लिया है दादा ,, पिताजी नंदिनी की वजह से परेशान हैं ,, नंदिनी किसी मुसीबत में है और उसे रुपयों की आवश्यकता है और मेरे पिताजी नंदिनी की मदद करना चाहते हैं मगर रुपए कहाँ से लाएं ये सोचकर परेशान हैं ।"
दिव्य प्रताप ने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए आसमान की तरफ देखा मानों किसी बात के लिए ईश्वर को धन्यवाद दे रहा हो और फिर अपने विद्यालय जाने के लिए निकल गया।
श्रीधन ने जो सोचा था वो करने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए थी और उसका परिणाम क्या होगा !! इस पर वो विचार ही न कर रहा था या कहो करना न चाह रहा था ,, जब उस व्यक्ति को ,जिसको अपनी संतान के जैसे माना हो और वो मुसीबत में हो तो व्यक्ति वो भी कर जाता है जो उसे नहीं करना चाहिए.....
दोपहर को भोजन के पश्चात हवेली के भीतर दिव्या, मानसी ,कनक सब सोने लगती थीं ।शिव प्रताप भानु दोपहर को अपने कक्ष में कुछ देर नींद लेने लगता था ,दिव्य प्रताप तो संध्या तक विद्यालय से आ पाता था ,सूर्य प्रताप का तो हवेली के बाहर वाला बरामदा ही था जहाँ वो आराम फरमाते थे तो श्रीधन ने इसी समय हवेली के भीतर प्रवेश करने की योजना बनाई। सुरतिया दोपहर को जो अपने घर चली जाती तो फिर सबके उठने के समय ही आती थी ।
दोपहर हुई और श्रीधन ने दबे पाँव बरामदे से होते हुए बहुत हिम्मत बाँधकर हवेली के भीतर प्रवेश किया ...........शेष अगले भाग में।