" ओहो , एक तो सूर्य प्रताप का नंदिनी के प्रति ऐसा व्यवहार कि भाई शिव के द्वारा उसके संदूक में जेवर रख देने से आग बबूला हो जाना , अपनी हजारों एकड़ की जमीन में से शिव प्रताप को महज ढा़ई सौ एकड़ देना ऊपर से अब रईस बहू की वजह से खटपट भी होगी क्या हवेली में !!" मादा गौरैया ने नर गौरैया से विस्मय से पूछा जिससे नर गौरैया बोला -" बहुत चाव से कथा सुन रही हो , ये तो आगे की कथा सुनो तब पता चले ,,, "और नर गौरैया आगे की कथा सुनाने लगा --
मानसी ने शिव प्रताप की बात सुनी मगर उसने कुछ कहने के बजाय इस मामले में चुप्पी धारण करना ही उचित समझा ।
शिव प्रताप लेटा हुआ अपने विचारों में खोया हुआ था ,मानसी उठी और जाने लगी ।
"रात हो गई है तुम कहाँ जा रही हो ?" शिव प्रताप ने मानसी को जाते हुए देखकर पूछा ।
"आती हूँ "कहकर मानसी कक्ष से निकल कर दिव्या के कक्ष का द्वार खटखटाने लगी ।
" कौन है ?भीतर आ जाओ ।"दिव्या ने कहा और मानसी दिव्या के कक्ष में जाकर उसके पास खडी़ होकर बोली -"माँ ,आपके चरण दबाने आई हूँ ।"
सूर्य प्रताप भोजन कर चुके थे और हाथ धो रहे थे ,उन्होने बहू को अपने कक्ष में जाते देखा था तो वहीं हवेली के प्रांगण में ही ठहर गए थे ।
"इसकी क्या आवश्यकता है बहू !!तुम विश्राम करो जाकर।" दिव्या उठते हुए बोली ।
"आवश्यकता है माँ ।"कहकर मानसी दिव्या के पाँव दबाने लगी ।
दिव्या ने मानसी से कहा -"बहू तुम्हारा चूल्हा पूजन हो गया है तो अब तुम पाकशाला सँभालो , तुम्हारे पिता अभी रात्रि का भोजन करते हुए फिर पूछ रहे थे कि पाकशाला में सुरतिया क्यों है जबकि मैंने कहा था कि बहू ही पाकशाला में भोजन बनाएगी व परोसेगी ।"
मानसी ,दिव्या के पाँव दबाती रही ,कोई उत्तर न दिया ।अब यही होने लगा था , मानसी दिव्या के व सूर्य प्रताप के कपडे़ धोकर उन्हें इस्त्री करके कक्ष में रखती ,दिव्या के केश सँवारती , उनके कक्ष में उनके लिए दोनों समय का नाश्ता स्वयं लेकर जाती, हर तरह से वो दिव्या की सेवा कर रही थी पर दिव्या हर बार मानसी को भोजन बनाने के लिए पाकशाला सँभालने को कहती और मानसी हर बार उसे मौन ही अर्पण करती थी ।
सूर्य प्रताप भानु पाकशाला में सुरतिया को देखते तो दिव्या पर भड़कते और दिव्या कहती कि कल से बहू पाकशाला सँभालेगी ,कल आता ही नहीं और सूर्य प्रताप का क्रोध बढ़ ही रहा था ।
दिव्या महसूस कर रही थी कि बहू सेवा कार्य में पीछे नहीं है बाकी सारे कार्य भी वो बिना आलस्य किए करती है मगर उसे पाकशाला में भोजन बनाना न सुहाता है ।
एक दोपहर सूर्य प्रताप भानु भोजन करने हवेली के भीतर पधारे तो वहाँ उन्होनें सुरतिया को ही नित्य की भाँति पाया,सूर्य प्रताप भानु का पारा चढ़ गया ,दिव्या उन्हें पंखा झलने को बैठी थी ।
सूर्य प्रताप ने पूछा -" बहू पाकशाला में क्यों न है ?"
दिव्या ने कहा -"जी कल ,,," दिव्या आगे कुछ कहती इससे पहले ही सूर्य प्रताप भानु ने भोजन का थाल खडे़ होकर जो फेंका वो झन्नाटेदार आवाज के साथ अलग गिरा जाकर और सारा भोजन भूमि पर बिखर गया ।सूर्य प्रताप चीखे -"कल,कल,कल ,,,, थक चुका हूँ सुनते सुनते ,, मैं कहे देता हूँ रात्रि को मैं आऊँ तो पाकशाला में बहू मिलनी चाहिए ,, वो क्या बैठे बैठे रोटियाँ तोड़ने के लिए ही आई है !!" और पाँव पटकते हुए हवेली से बाहर चले गए ।
सूर्य प्रताप की आदत थी वो न सुरतिया से और न बहू मानसी से प्रत्यक्ष कुछ कहते ,जो कहना होता वो दिव्या से ही कहते थे ।
ये प्रथम बार था जब सूर्य प्रताप दिव्या पर इतनी बुरी तरह बरसे थे ।दिव्या रोआसी होकर भोजन किए बिना ही अपने कक्ष में जाकर लेट गई ।
दिव्य प्रताप कहाँ अवसर चूकने वाला था भला !! वो दिव्या के कक्ष में गया और दिव्या के पैरों के पास बैठकर बोला -"माँ ये भी कोई बात है भला !! भाभी को पाकशाला में भोजन बनाना चाहिए ,, वो ऐसा न कर घर में तनाव का माहौल बना रही हैं ,,, मेरी पत्नी होती और उसकी वजह से मेरी माँ को ये सब सुनना पड़ता तो मैं तो उसके केश पकड़ कर हवेली से बाहर कर देता ,,,
मेरे माँ और पिताजी को किसी भी प्रकार की तकलीफ मैं सह न सकता और आपकी व पिताजी की आज्ञा की अवहेलना !!राम !राम!राम !!
दिव्य के इन्हीं बोलों पर दिव्या रीझ जाती थी और शिव प्रताप वास्तव में माँ के लिए सबकुछ करके भी उनका प्रिय न हो पाता था ,कारण उसे ये बस मीठी मीठी बातें करना न आता था ।
दिव्य माँ को अपने मीठे बोलों से भरमा ही रहा था कि दिव्या के कक्ष में मानसी ने प्रवेश किया ।मानसी नित्य की भाँति दिव्या के समीप जाकर बोली -"लाइए माँ मैं आपके चरण दाब दूँ ।"
दिव्य मुस्कुराता हुआ चला गया ।
दिव्या उठ कर बैठ गई और तैश में बोली -"एक काम कर तू मेरा सीधे गला ही दबा दे ,, तेरे कारण आज पहली बार वो मुझपर इतना झल्लाए हैं !!
तुझे पाकशाला में भोजन क्यों न बनाना !! मेरे दिव्य की बहू होती तो मेरा कहना क्या टालती !! "
मानसी बहुत समझदार व दिल की साफ व अच्छी थी ,उसने दिव्या से कहा -"माँ मुझे पाकशाला में भोजन बनाने की आदत नहीं है ,,हाँ तीज त्योहारों पर पकवान बनाना बहुत भाता है ।"
दिव्या आवेश में कुछ कहती इसके पूर्व ही सुरतिया दिव्या के कक्ष में आकर बोली -"बहू रानी ,आप एक कार्य करो जिसमें आप भी खुश ,मालिक भी खुश ।"
"अच्छा ! वो क्या ,पहले मुझे ही बताओ सुरतिया।"दिव्या ने हैरानी से पूछा ।
"देखिए मालकिन , मालिक हवेली में दोनों समय जब भोजन करना होता है तभी आते हैं ,तो दोनों समय जब मालिक भोजन करने आएं उस समय बहू रानी पाकशाला में रहें और मालिक को भोजन परोस दें ,, मालिक बहू रानी को पाकशाला में देखकर यही समझेंगे कि भोजन बहूरानी ने बनाया है ,,और जब वो भोजन गृहण कर चलें जाएं तड बहू रानी भी पाकशाला से निकल लें ।
दिव्या और मानसी दोनों को सुरतिया का विचार श्रेष्ठ लगा ..........शेष अगले भाग में।