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दुनियादारी आज तक,नहीं समझ में आयी |
बहिन की इज्जत से खेल े,बन धर्म के भाई ||
बन धर्म के भाई , खिलाते खूब मिठाई |
ऐसे भाइयों की होती,आखिर खूब पिटाई ||
आखिर खूब पिटाई , कहता कवि दुर्गेश |
धोखा दे रहे दुश्मन तेरे,धार मित्र का वेश ||
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