@@@@@@@@ मर्द का दर्द @@@@@@@@
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क्या दिन थे वे जवानी के , हर कन्या के दिल में रहते थे |
रंगीन लगती थी दुनिया सारी,और बात-बात पर हँसते थे ||
हर सुन्दर कन्या का भाई,हमें अपना साला लगता था |
हमारे अरमानों से डरकर,वो हर आहट पर जगता था ||
जो भी पहनते अपने तन पर, वो हमें जच जाता था |
जो भी खाते नमकीन-मीठा, हमें वो पच जाता था ||
अंगूर जैसा शरीर हमारा ,अब किशमिश जैसा हो गया |
सौन्दर्य का अकूत खजाना,न जाने क्यों कर खो गया ||
टमाटर से थे जो गाल हमारे,अब चूसे आम हो गये |
अधूरे अरमान जवानी के, नीन्द मौत की सो गये ||
सर पर थी जो बालों की खेती,वो सूख कर भूसा हो गयी |
चेहरे पर थी जो रौनक पहले ,वो उदासी मानो बो गयी ||
हेंगर पर लटका लगता है , अब शर्ट हमारी बॉडी पर |
पड़ गये खड्डे गालों में,और ऊग आयी सफेदी ठोडी पर ||
चाँद सा चमकता चेहरा,अब झुर्रियों में खो गया |
भरा-पूरा शरीर हमारा, ढाँचा हड्डी का हो गया ||
ऊँची रहती जो नाक हमारी , अब नीची ही रहती है |
पचास पार की पडौसन भी,हम को अंकल कहती है ||
मालिक होकर बन गये नौकर,आँखों से बहता पानी हैं |
पचपन पार के इस मर्द की ,यह दर्द भरी कहानी है ||
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