खुद की ही सोच से ,
जन्मी हुई एक बीज हूँ ा
पत्थरों में विलीन हो ,
पत्थरों से ही उपजी हूँ ,
अनन्त काल से शिलाओं पर ,
बेख़ौफ़ उभरी हुई अमिट तहरीर हूँ ा
जो घुलती है, न मिटती है ,
जलती है न बुझती है ,
बस मौन रह ,अपनी अमर गाथाएं कहती है ा
मैं नदियों का किनारा नहीं ,
उसकी कोख से जन्मी हुई माटी हूँ ,
सुप्त बीज को पल्वित पुष्पित कर ,
भूखे काया को पोषित करती हूँ ा
मैं विभावरी की जुगनू ही नहीं ,
सूरज की अपार ज्योति हूँ ,
दहकते अंगार में स्वयं झुलस कर ,
पुरे सृष्टि को सींचती हूँ ा