स्वयं में ही उलझी हुई ,
खोई -खोई सी रहती हूँ ,
एकांत और बिलकुल चुपचाप ,
नजर कहीं दूर जाके टिक जाती है ,
आँखों से ओझल ,अनंत पर ा
मस्तक में कुछ ,धुंधले तस्वीर आते हैं ,
कोई ख्याल बनके ,स्मरण होने लगता है ,
कुछ टीस बनके चुभने लगता है ा
कहीं बीते पल में दूर निकल जाती हूँ ,
जहाँ असहनीय पीड़ा था ,
जिसे अकेले ही सहना पड़ा था ा
बंद किताब की तरह निशब्द ,
चुप्पी साधे हुए किसी तहखाने में ,
स्वयं को कैद कर रखी हूँ ा
एक डर बेचैन कर देती है ,
कहीं मुझको कोई पढ़ न ले ,
मेरे जख्मों को कुरेद न दे ा
कभी इस करवट तो कभी उस करवट ,
और बिस्तरों में यूँ ही रात कट जाती है ,
आवाज के साथ रोना चाहती हूँ ,
लेकिन डर है की कोई सुन न ले,
मुझे कमजोर न समझ ले ा
जिंदगी की कसमकस चल रही है ,
पूरा कायनात चल रहा है ,
सिर्फ मैं ठहरी हुई हूँ ,
और मेरा वक्त ठहरा हुआ है ा