आज फिर मैं बोझ सी लगी हूँ ,
यूँ तो मैं बाबा की गुड़िया रानी हूँ ,
पर सच कहाँ बदलता है झूठे दिल्लासों से ,
सच कहूँ तो आज बाबा की मजबूरी सी हूँ ा
उनके माथे की सिलवटें बता रही है ,
कितने चिंतित है मगर जताते नहीं है वो ,
अपनी गुड़िया को एक गुड्डा दिलाने के लिए ,
घनी दोपहरी में पाई - पाई जोड़ रहे है वो ा
मैं कैसे समझाऊँ बाबा को
खुशियाँ नहीं खरीदी जाती कीमतों से ,
जो खुद सरेआम बिक गया हो बाजार में ,
वो क्या समझेगा उनके बिटिया के जज्बात को ा
क्यों मेरी झूठी खुशियों के लिए ,
गैरों के सामने अपना हाथ फैलाते हो ,
आपने ही मुझे सिखाया सर उठा कर जीना ,
फिर आज क्यों अपनी पगड़ी किसी के पाँव में रखते हो
बाबा एक बात सुनो मेरी ,
मेरी खुशियाँ उस बिकाऊ गुड्डे में नहीं है ,
मेरी तो जान बाबा आप में बस्ती है ा