सुबह से शाम हो गई ,
और शाम से रात ....
पर कागज कोरा ही था ा
मैं तकिए के सहारे ,
कभी बैठती तो कभी लेट जाती ,
जज्बातों को समेटती ,
एहसासों को अल्फाज देती ,
पर सिवाय उसके नाम के ,
कागज पर कुछ नहीं उभरा ा
उसकी याद में कितनी खामोश हूँ ,
क्या ये कोरा कागज नहीं बोलता ा