रोज आते थे मेरे छत पर सैकड़ों कबूतर ,
आस-पास के ही किसी छत से उड़कर ,
आल्हा -ताला की कसम
मेरे इरादे में कोई बेईमानी नहीं थी ,
मैं कोई शिकारी नहीं एक जमीन्दार की लड़की थी ,
एक काल से दूसरा काल बिता ,
कई अनेक वर्षों तक सबको भरपेट दाना मिला ,
बदलते वक़्त के साथ हवा की रुख बदल जाती है ,
जिसकी हस्ती कल थी उसकी आज मिट जाती है ,
आज एक भी दाना नहीं बचा था मेरे घर ,
कबूतर भी उड़ चला किसी गैरों के छत ,
पर जाने क्यों क्या सोचकर ,
एक कबूतर बैठा रहा मेरे ही छत के मुंडेर पर ,
ऐसा लगा जैसे खुदा का करिश्मा हो गया ,
शायद उस कबूतर को मुझसे सच्चा इश्क़ हो गया ,
लेकिन सच किसी के दिल का एहसास नहीं होता ,
जख्मी था उसका पंख शायद इसीलिए वह उड़ा नहीं होगा ा