दर्द-ए-महफिल सजा,अपने जख्मों को ताजा करती रही ,
किसी बेचैन दिल को नगमा सुना,मैं रोज मरहम बनती रही
अंदर-ही-अंदर जो टूटता रहा,वही नज्म मैं गुनगुनाती रही,
नम आँखों के दर्द को समझे न मेरा महबूब ,
अपने यार की दीवानी कह ,दुनिया वाह! वाह! करती रही
साथ रहकर भी वर्षों ,मोहब्बत होती नहीं दिल से ,
पहली नज़र देखी थी उसको ,
सिवाय उसके मोहब्बत हुई नहीं किसी से ,
ये इश्क भी कमाल की चीज़ होती है ,
जिसे पा न सके कभी,बेपनाह इश्क हो जाता है उसी सेा
है आँखों में दर्द इतना,बह जाए तो सैलाब आ जायेगा ,
जुबान से जो उसे पुकार लूँ,पूरा कायनात काँप जायेगा ,
खामोश हूँ क्योंकि ,परवाह करती हूँ मैं उसकी ,
उसके नाम से गर मेरा नाम जुड़ जाएं तो ,
इश्क की बदनाम गली में बेबजह वो बदनाम हो जायेगा