युग -युग से श्रापों से श्रापित,
इज़्ज़त को सदा ललायित ,
कृष्णा के पावन धरती पर ,
होती रही हूँ घोर अपमानित ा
खटक रहा है वजूद अपना ,
खुद पर ही झललाई हूँ ,
भागीदार मैं सृष्टि रचने में ,
खुद ही सृष्टि से दुत्कारी गयी ा
कहाँ सुरक्षित मैं रही ?
कोई जरा मुझको बताना ,
मुहल्ले के सुनसान गलियों में ,
सड़कों पर दौड़ते हुए वाहनों में ,
खेतों में ,तो कभी मंदिरों में ,
नोच दिए जाते हैं मेरे रूह को ,
समाज सेवक के बालिका गृह में ा
ये मत कहना कोई ,
तू महफूज है अपने घर में ,
याद दिला दूँ मैं सबको-
पाँच पतियों के रहते हुए ,
बाल पकड़ घसीट लाया गया था ,
मुझको राजभवन से ा
यौवन मेरा अपवित्र हुआ ,
ढलते उम्र में भी शर्मशार किया ,
मासूम सी बच्ची थी मैं ,
जब मेरा बलात्कार हुआ ा
मेरे न्याय का कुछ पता नहीं ,
पर राजनैतिक माहोल में ,
गजब की गरमाहट आती है ,
मेरी असहाय सिसकियाँ ,
कानून के पन्नों में ही दब जाती है ा
अब न कोई दिखावा करना,
कोई न मुझको देवी कहना,
न ही दुर्गा-काली का स्वरूप ,
अब दामन मेरा पावन नहीं ,
हैवानों के हवश ने ,
मेरे चरित्र को कर दिया अपवित्र ा
बस एक बात मेरी याद रखना,
गर ऐसे ही होती रही मैं तार-तार ,
हर घर के आँगन में ,
हर एक नारी होगी दागदार ा