वक़्त जितना सीखा रही है ,उतनी तो मेरी साँसें भी नहीं है
देह का अंग-अंग टुटा पड़ा है ,
रूह फिर भी जिस्म में समाया हुआ है ,
मेरे साँसों पर अगर मेरी मर्जी होती ,
तो कबका मैं इसका गला घोंट देती ,
मगर जीने की रस्म है जो मुझे निभाना पर रहा है ,
मेरा मीत जो है गीत भी है ,
साथ चलता है मगर साथ चलता नहीं ,
कहता है प्रीत है तुझसे पर रीत वो निभाता नहीं ,
दो पल का कोई हमराही बन भी जाए ,
इस पार से उस पार तक चले ,ऐसा उनका इरादा नहीं है
सीसा टूटता है बिखड़ जाता है ,
हौसला पल पल टूटकर भी बिखरता नहीं ,
ज्योत हूँ हमेशा जलती रहती हूँ ,
दर्द जो भी है ह्रदय में दफ़न करती रहती हूँ ,
तकदीर को पीछे छोड़कर श्रम को गले से लगायी ,
फिर क्यों मीलों चलकर भी मंजिल को दूर ही पाई ा