एक भीड़ चल रही थी पर्वत की ओर ,
अपना काफिला सजा मंजिल की ओर ,
ये बदकिस्मती थी मेरी या खुशनसीबी ,
उसी भीड़ में मेरी काया भी चल रही थी ,
कितना ऊँचा ललाट था उस पर्वत का ,
एक कम्पन सा उठा मेरे फूलते साँस में ,
पाँव थककर वहीं ठिठक सा गया ,
तभी किसी ने दरगाह में मेरे लिए नमाज पढ़ा ,
उसकी नेक दुआ का असर मुझपर हुआ ,
पर्वत स्वयं झुककर अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया ,
मेरे भुजाओं को खींचकर अपने गले से लगाया ,
ये कैसी होशमंदी थी मेरी ,
पर्वत की कोख में आकर अपनी धरातल को भूल गयी,
मैं कई जन्मों से श्रापित हूँ मेरे हिस्से की खुशी आँसू में घुल गयी ,
कुछ पल को ही रुका मेरा काफिला वहाँ ,
सूरज की पहली किरण परते ही ,
पर्वत का हिम पिघलकर हिमजल बन गया ,
मैं रेत थी, उसी हिमजल में समाकर ,
पर्वत का ह्रदय बेधती हुई आकर समंदर में मिल गयी ,
और समंदर की कोख पर्वत से मीलों दूर ,
मुझे किनारे पर लाकर पटक दिया ा