बच्चे मन के सच्चे सारे जग की आंख के तारे
ये वह नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे।
बचपन से यह गाना सुनती आई हूं..... इसका हर शब्द मुझे बहुत प्यारा लगता है। पर जैसे-जैसे जवानी की दहलीज पर कदम रखती गई .......इस गाने की और उस बचपन की हक़ीक़त शिद्दत से महसूस कर पाई.... आज सोचने पर विवश हू... वाक़ई क्या होता है बचपन.... एक खुशनुमा याद... एक हसीन सपना......... या फिर.... कल्पनाओं की दुनिया..... किस्से कहानियों का संसार। हर किसी के साथ अपनापन.... कितना प्यार कितना......... झगड़ा..... पर मन में कभी बुराई नहीं... कोई मैल नहीं..वो कौन है?... क्या है?.. कैसा है.?. ..क्यों?..….. है.. .. क्या धर्म है क्या जाती है भेद भाव से दूर.. एक अनोखी दुनिया.. कोई फर्क नहीं क्योंकि...... बच्चे मन के सच्चे ....पर उन बच्चों की तरफ से भी हम मुंह नहीं मोड़ सकते जिनका बचपन ग़रीबी और अभाव की भेंट चढ़ गया है.. आज सोचती हूं उन बच्चों के बारे में बचपन के नाम पर जिनके पास कुछ दर्द कुछ ग़म और चंद आंसुओं के सिवाय और कुछ भी नहीं..! कैसे खिलौने.....कैसा प्यार.... हर चीज़ से वंचित... मन बेजा़र... दुनिया के लिए हज़ार....... प्रश्न चिन्ह... एक गंभीर सवाल....................................! 🤔🤔
न जाने वो बच्चा किस खिलौनों से खेलता है,
जो दिन भर बाजार में खिलौने ही बेचता है।
ओह.. फिर भी बचपन तो बचपन ही है और यह भी नहीं झूठलाया जा सकता कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं......!
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झूठ बोलते थे फिर भी कितने सच्चे थे हम
ये उन दिनों की बात है जब बच्चे थे हम.....
स्वरचित रचना सय्यदा----✒️
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